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रात / सत्यप्रकाश बेकरार

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रात अंधेरी काली कितनी हो
रात रात है टल जाएगी,
सूरज सूरज है निकलेगा ही
भोर सुहानी छा जाएगी।

पर यह भी एक सुनहरा धोखा है।
मैं अभी-अभी सूरज से मिलकर आया हूं,
जो वहां पहाड़ी के पीछे
कीचड़ में धंसा पड़ा है
निर्बल और बीमार पड़ा है।
हम जैसे कुछ लोग
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सब मिल-जुलकर सूरज को खींचें,
सुबह उगाई जाती है
हर बात बनाई जाती है।