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रादनोती पर विष्णु खरे / मिक्लोश रादनोती

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9 नवम्बर 1944 को एक फ़ौजी दस्ते ने मिक्लोश रादनोती को गोली मार दी. रादनोती तब 35 वर्ष के थे। नात्सी जर्मनी की फ़ौज की निगरानी में वे बेग़ार करने वाले कैदी मज़दूरों की एक बटालियन में थे और उस समय सर्बिया में काम कर रहे थे, लेकिन जब पूर्वी मोर्चे से धुरी शक्तियों की सेनाओं ने पीछे हटना शुरू किया तो वे अपने साथ कम करने वाले इन बंदी मज़दूरों को भी हंगरी से होते हुए पश्चिम में खदेड़ कर ले जाने लगीं। उत्तर पश्चिम में अब्दा नामक गाँव के पास जो मज़दूर कैदी इतने कमज़ोर हो गए थे कि जर्मनी नहीं जा सकते थे, उनके पहरेदारों ने उनकी हत्या कर दी और एक सामूहिक क़ब्र में उन सबको दफ़ना दिया। जब विश्व युद्ध समाप्त हो गया और अगले साल वे सारी लाशें खोदकर निकाली गईं तो रादनोती की बरसाती में एक नोटबुक मिली जिसमें कविताएँ लिखी हुई थीं--कुछ तो उनकी मौत से कुछ ही दिनों पहले लिखी गई थीं। यह कवितायें मानो एक कठोर क्लासिकी नियंत्रण में लिखी गई कविताएँ हैं, नपे-तुले शब्दों वाली, अपने शिल्प में लगभग सम्पूर्ण--ये कविताएँ हैं जिन पर युद्ध की भयावह छाया है और जो कवि के इस अहसास से संपृक्त हैं कि उसकी मृत्यु समय से पहले होनी तय है। लेकिन फिर भी ये कविताएँ उन मानवीय भावनाओं और मूल्यों के प्रति पूर्णतया प्रतिबद्ध हैं जिन्हें मानव सभ्यता ने पोसा है। दरअसल इन अन्तिम कविताओं की 'रूपवादिता' और सूक्ष्मता ही उन भावनाओं और मूल्यों की अभिव्यक्ति है और कवि की प्रतिबद्धता की घोषणा करती है। करीब दस वर्षों से मिक्लोश रादनोती स्वयं को ऐसी मृत्यु के लिए तैयार कर रहे थे। उनकी कविताओं को उनके काल-क्रम में पढ़ना उस प्रक्रिया को थोड़ा-बहुत समझना है जिसमें एक व्यक्तिगत प्रतिभा ऐतिहासिक घटनाओं से विकसित होती है--साथ ही यह भी जानना है कि प्रतिभा अपने समय के इतिहास में किस तरह एक अर्थ देख लेती है।

रादनोती का जन्म बुदापेश्त में 1909 में हुआ था| वे यहूदी थे किंतु ऐसा लगता है कि उन्हें अपने धर्म या जाति से कोई विशेष लगाव नहीं था--यद्यपि ऐसा कहा जा सकता है कि शायद अनजाने ही उनकी कविता पर उनके धर्म ने प्रभाव डाला है| बचपन में उन्हें किसी तरह का स्नेह या सुरक्षा नहीं मिले| उनकी माँ तथा एक जुड़वाँ भाई की मृत्यु प्रसव के समय ही हो गई थी और पिता भी उसके बाद बहुत ज़्यादा समय तक जीवित नहीं रहे। जिन धनवान चाचा ने मिक्लोश को पाला उनके प्रति मिक्लोश की भावनाएँ न बहुत अच्छी थीं और न बुरी, हालाँकि चाचा ने उनके साथ कोई दुर्वयवहार नहीं किया और उचित ढंग से पाला-पोसा और पढ़ाया-लिखाया।

इस शताब्दी के तीसरे दशक में मध्य यूरोप के प्रायः सारे देशों में राजनीतिक स्थिति बदतर हो चली थी और मिक्लोश रादनोती को भी अपनी असुरक्षा का अहसास होने लगा था। 1920 से 1924 तक हंगरी पर एडमिरल होर्थी का छद्म-संसदीय शासन था| होर्थी एक अति-प्रतिक्रियावादी, सतर्क तानाशाहनुमा शासक था जिसने हर प्रकार के राजनीतिक विरोध या प्रतिवाद को कुचलने की कोशिश की| अपनी अवसरवादी महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर उसने हंगरी को हिटलर के सुपुर्द कर दिया। समाजवादी तथा बुद्धिजीवी रादनोती के लिए होर्थी सरकार घृणित थी।

1934 में जब रादनोती ने सेगेद विश्वविद्यालय से हंगारी और फ्रेंच भाषाओं में विशेष योग्यता के साथ स्नातक उपाधि प्राप्त की तब उनके तीन काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके थे| उनकी प्रारंभिक कविताओं पर तीन प्रमुख प्रमुख प्रभाव थे--फ्रांसीसी अवाँ-गार्द, जर्मन अभिव्यक्तिवाद तथा रचनावाद का वह हंगारी संस्करण जिसे प्रसिद्द हंगारी समाजवादी कवि तथा सिद्धांतकार लायोश कस्साक के साथ जोड़ा जाता है। रादनोती की पहली किताब, 'एक मूर्तिपूजक का स्वागत' ( पोगानी कोसोंतो) अधिकतर भावुकतापूर्ण, वाल्ट विटमैन जैसी जीवन, प्रकृति और शारीरिक प्रेम की कविताओं की है। लेकिन आगामी, वयस्क रादनोती की झलक भी कुछ पंक्तियों में मिल जाती है जिनमें एक अलग ही ऊष्मा, विषाद और इसाई प्रतीकवाद के स्पर्श मिलते हैं। 1932 के आसपास मिक्लोश रादनोती अपने दिशाहीन, वायवीय विद्रोह से मुक्त हुए और एक ज्यादा ठोस अभिव्यक्ति की ओर मुड़े--राजनीतिक प्रतिवाद उनकी कविता का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया| इस दौर में रादनोती पर मार्क्सवाद का प्रभाव पड़ा पर उनमें कठमुल्लापन नहीं था| इसी बीच उन पर कैथलिक कवि-धर्मगुरु शान्दोर शिक का प्रभाव भी पड़ा| धीरे-धीरे रादनोती केवल,'सर्वहारा कवि' ही नहीं रहे, बल्कि देशी-विदेशी राजनीतिक घटनाओं में उनकी दिलचस्पी और उन्हें लेकर उनकी चिंताएँ और गहराने लगीं। वे मानो एक भूकंप सूचक यंत्र बन रहे थे--एक ऐसा संवेदनशील औज़ार जो विस्फोट को होने से बहत पहले महसूस कर लेता है।

हिटलर सरीखी भयावह शक्तियों के उदय को रादनोती जैसे एकदम पहचान गए थे। सितम्बर 1934 में लिखी एक कविता में वे कहते हैं :

उसे बचाने के लिए उसे तुम अपनी बाहों में लेते हो
जबकि तुम्हारे आसपास दुनिया तुम्हारी टाक में छिपी है
आख़िरकार अपने लम्बे चाकुओं से तुम्हे ख़त्म कर देने के लिए

इसमें कोई शक नहीं कि संकेत नात्सी बर्बरता की और है। इसके बाद से रादनोती ने स्वयं को एक अभिशप्त आदमी समझा। उस समय जर्मनी जैसा नात्सीवाद हंगरी से दूर था लेकिन रादनोती एक भयावह भविष्य को देख पा रहे थे। सारे यूरोप में मानव-विरोधी नृशंस शक्तियाँ सिर उठा रही थीं और रादनोती के मस्तिष्क में अपनी स्वयं की नियति तथा पहले से ही पीड़ित लोगों के प्रति सहानुभूति मानो एकाकार हो गए। स्पेनी गृह युद्ध से पहले वर्ष में प्रकाशित उनके काव्य-संग्रह का शीर्षक इसका गवाह है : 'चलते रहो, तुम मृत्यु-अभिशप्त' ( 1936)। रादनोती ने समस्या का हल खोज निकला था। उनके लिए सवाल यह नहीं था कि 'क्या मैं मरूँगा?' या 'क्या मैं मर सकता हूँ', बल्कि सवाल था, 'मैं कैसे मरूँगा?' एक कविता में वे पूछते हैं, 'और जहाँ तक तुम्हारा सवाल है, नौजवान, किस तरह की मौत तुम्हारी राह देख रही है?' अपनी उम्र के बचे हुए आठ वर्षों में यह 'मृत्यु-शैली' ही उनकी केन्द्रीय चिंता थी।

रादनोती के वयस्क कृतित्व में अपनी क्रूर मृत्यु का यह निर्विकार चिंतन लगभग एक रुग्न ग्रंथि की तरह मौजूद है। इसका कारण क्या है? कुछ मनोविज्ञानंवादी आलोचकों ने इसकी जड़ें एक अपराध-भाव में खोजी हैं--रादनोती को जन्म देते समय ही उनकी माँ तथा उनके साथ पैदा होने वाले जुड़वाँ भाई की मृत्यु हो गई थी। रादनोती इसे कभी भुला नहीं सके और स्वयं को दोषी समझते रहे। कुछ कविताओं में यह अपराध-भाव उपस्थित भी है किन्तु रादनोती की कविताओं में मृत्यु की रुग्ण इच्छा अथवा उसका रुग्ण वरण कहीं नहीं है। यदि कुछ है तो यह कि उनकी कविता मृत्यु के अहसास में डूबी हुई है। इस अहसास को जिन तत्वों ने गहराया वे हैं उनका यहूदी होना, बलिदान की ईसाई अधर्ना में उनकी दिलचस्पी ( युद्ध के दौरान वे रोमन कैथलिक हो गए थे) और यूरोप के तत्कालीन विनाशकारी संकट के बीच मानवतावादी परंपरा के भविष्य की चिंता।

इस बिंदु पर लोर्का एक महान प्रतीकात्मक महत्त्व के व्यक्तित्व के रूप में प्रकट होते हैं। अन्य कई लोगों की तरह जिनकी सहानुभूति स्पेनी गणतंत्र से थी, रादनोती को भी विश्वास था कि लोर्का की हत्या राष्ट्रवादियों ने की थी। यदि ऐसा था तो यह भी स्पष्ट था कि लोर्का को उनकी जाति अथवा क्रन्तिकारी आस्था के कारण नहीं मारा गया था। रादनोती की व्याख्या यह थी कि लोर्का को मरना ही था, क्योंकि जनता उन्हें चाहती थी और साफ़ बात तो यह थी कि वे कवि थे--जीवन-शक्तियों के प्रवक्ता थे। उनकी मृत्यु के पीछे एक सादा-सा समीकरण था : फ़ासीवाद यानी युद्ध यानी मृत्यु। फ़ासीवाद कवियों को सिर्फ इसलिए मार डालता है कि वे कवि होते हैं।

जब रादनोती ने इसे समझ लिया और उसे अपनी नियति के रूप में स्वीकार कर लिया तो भौतिक विश्व के बारे में उनकी पूरी धारणा बदल गई। 'एक मूर्तिपूजक स्वागत' के मनोहर प्रकृति-चित्र तिरोहित हो गए। वे बादलों में अपशकुन देखने लगे, शांत बगीचों में विचित्र चीत्कार और सिसकियाँ सुनने लगे और पतझड़ के सौन्दर्य को एक ऐसे व्यक्ति की आँखों से देखने लगे जिसके दिन गिने हुए हैं। ऐसा नहीं था कि उनकी कविताओं से उल्लास चला गया लेकिन वह उनमें एक चिंता के रूप में आया। रादनोती अपने भविष्य के प्रति कभी भी आश्वस्त नहीं हुए किन्तु उन्हें कुछ पारिवारिक सुख अवश्य मिला। 1935 में उन्होंने अपनी प्रियतमा फान्नी दयारमाती से विवाह किया जिनके प्रेम ने उन्हें आगामी वर्षों की तकलीफों को बर्दाश्त करने की शक्ति दी| रादनोती की अंतिम कविताओं में भी उनमें फान्नी की अदम्य आस्था और अडिग प्रेम प्रतिबिंबित होते हैं|

जब दूसरा विश्व-युद्ध मंडराने लगा तब हंगरी धीरे-धीरे धुरी शक्तियों के शिविर में शामिल हो गया| जब सरकार ने 1938 और 1939 में यहूदी-विरोधी कानून लागू किये तो रादनोती की सारी आशंकाएं सच साबित हुईं। 1941 में जर्मन फौजों को हंगरी से होकर युगोस्लाविया पर हमला करने की अनुमति दी गई और युगोस्लाविया का जीता हुआ एक हिस्सा हंगरी ने हथिया लिया। इसी वर्ष होर्थी सरकार ने सोवियत रूस से युद्ध की घोषणा कर दी और इस तरह वह खुल्लमखुल्ला धुरी शक्तियों में शामिल हो गई। मार्च 1944 में जर्मन फौजों का आधिपत्य हो गया और होर्थी को जर्मन राजदूत द्वारा नामजद सरकार को स्वीकार करने पर मजबूर होना पड़ा।

इन घटनाओं के बीच रादनोती को जिस भयावह व्यक्तिगत नियति की प्रतीक्षा थी वह धीरे-धीरे पूरी हुई। 1940 के बाद उन्हें बलात मज़दूरों की एक बटालियन में भरती कर लिया गया। बुदापेस्त पर नात्सी कब्जे के फ़ौरन बाद उन्हें युगोस्लाविया में बोर नमक स्थान कि जर्मन-संचालित ताम्बे की खान में काम करने के लिए भेजा गया। वहाँ उन्होंने बोर और बोग्रद के बीच रेल-पटरी बिछाने का काम किया। वहीँ उन्होंने अपनी कुछ सर्वश्रेष्ठ कविताएँ भी लिखीं और जब 1944 की पतझड़ में बोर का कैदी-शिविर खाली किया गया तो रादनोती और उनके मज़दूर-साथियों का जबरन कूच करना पड़ा जिसके दौरान उनकी हत्या कर दी गई।

अपनी अंतिम कविताओं में रादनोती को जीवित रहने की चिंता कम ही सता रही थी--वे इतिहास के महान‍ मुक़दमे में एक गवाह बन गए थे। अपने जीवन के अंतिम दशक में वे वह उपलब्ध करने का यत्न कर रहे थे जिसे उनके समकालीन, एक और महान हंगारी कवि, अतिला योझेफ़ ने 'हीरक चेतना' कहा है --अपने सारे आध्यात्मिक तथा बौधिक साधनों को काव्यात्मक ऊर्जा की एक्सशाक्त किरण में परिणत कर देना। एक ओर उनकी कविता में यहूदी-ईसाई परम्परा दिखाई देती है तो दूसरी ओर इसे सम्पूर्ण बनती हुई समाजवादी जीवन-दृष्टि। चौथे दशक के अंतिम वर्षों के रदनोती और 1944 के रादनोती में एक मौलिक अंतर है--पहले जहाँ ऐसा लगता था कि कवियों का (लोर्का की तरह) रहस्यमय ढंग से लापता हो जाना अपरिहार्य है, वहाँ बाद में अपनी मृत्यु के समीप आते-आते रादनोती ने समझ लिया था कि कविता में सत्य का पक्ष लेना चुनौती या आत्म-रक्षा नहीं है बल्कि ख़तरे में पड़े मूल्यों के साथ एकात्म होना और इस तरह उन्हें जीवित रखना है। कवि के रूप में रादनोती ज्यों-ज्यों वयस्क होते गए--लगता है कि उन पर विपत्ति जितनी बढती गई उनकी प्रतिभा उतनी ही निखरती चली गई--उनकी कविता छंद, मात्रा और लय की एक क्लासिकी शुद्धता की ओर पहुँचती चली गई। सत्य और रूपाकार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता चरम सीमा की थी। उनके 'पिक्चर-पोस्टकार्ड', जो मृत्यु की कूच करते हुए लिखे गए हैं, मानो नरक से भेजे हुए छोटे-छोटे सन्देश हैं। युद्ध की विभीषिका के आकलन में वे निर्भीक और यथार्थवादी हैं लेकिन एक बेहतर ज़िन्दगी की सम्भावना का स्वप्न देखना वे कभी नहीं भूलते। युद्ध की आग में गाँव जल रहे हैं लेकिन एक गडरिया लड़की अभी भी अपनी मामूली ज़िन्दगी के रोज़मर्रा काम में लगी हुई है और अपनी अंतिम कविता में, मृत्यु के कुछ दिन पहले, अपनी मौत को बगैर घबराए हुए ठीक-ठीक देख लेते हैं :

उसकी गर्दन में गोली मारी गई, 'तुम भी इसी तरह ख़त्म होगे'
मैंने खुद से फुसफुसाकर कहा : बस चुपचाप पड़े रहो।
धीरज अब मौत में फूलता है।

रादनोती को 'क़ैदी मज़दूरों का' फ़ासीवाद विरोधी' कवि कहा गया है। लेकिन सिर्फ़ इतना ही कहना उनके साथ अन्याय करना है। इसमें संदेह नहीं कि यह जानना अनिवार्य है कि रादनोती की कविताएँ समसामयिक इतिहास के एक जघन्यतम दौर के निजी अनुभवों की कविताएँ हैं। लेकिन अधिक महत्व इस बात का है कि रादनोती सरीखा महान कवि ही ऐसे अनुभवों से कविताएँ बना सकता है और इसके लिए जिस साहस की आवश्यकता होती है वह रादनोती की सर्जनात्मक प्रतिभा का अविभाज्य हिस्सा था। रादनोती की महानतम उपलब्धि यह है कि वे अपने युग की विभीषिकाओं को लेकर मुखर रहे और उन्हें विलक्षण और शांत कविताओं में परिणत कर सके। रादनोती के मित्र तथा प्रसिद्द हंगारी कवि इश्त्वान वाश ने ठीक ही कहा है कि रादनोती के कृतित्व की नैतिक और कलात्मक पूर्णता को, उसके सत्य को, और सौन्दर्य को, अलग-अलग देखना असंभव है। इश्त्वान वाश कहते हैं, "( मिक्लोश रादनोती की कविताएँ) उन विरली उत्कृष्ट कृतियों में हैं जिनमें कलात्मक और नैतिक पूर्णता दोनों होती हैं... वे सिर्फ़ रोमांचक कृतियाँ नहीं हैं, सिर्फ़ वाकई महान कविताएँ नहीं हैं, बल्कि मानवीय और कलात्मक निष्ठा का एक ऐसा उदाहरण हैं जो जितना विचित्र और संकोच में डालनेवाला है उतना अनिवार्य भी है।"