राधा! तुम-सी तुहीं एक हो / हनुमानप्रसाद पोद्दार
राधा! तुम-सी तुहीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और।
लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥
मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता।
कभी तुहारी ही इच्छा से हूँ लहरों में लहराता॥
पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुहारा रय महव।
उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुहारा ही है स्वत्व॥
तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता।
केवल तुहें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥
एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती।
रखकर सदा मुझे संनिधि में जीवनके क्षण सरसाती॥
अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती।
सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥
सदा सदा मैं सदा तुहारा, नहीं कदा कोई भी अन्य।
कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥
जैसे मुझे नचाओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य।
यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥