राधा! तेरे दर्शन को मैं उत्सुक रहता, नित्य अधीर।
कोई नहीं जान सकता यह मेरे अन्तस्तलकी पीर॥
पीड़ा वह अति व्यथित बनाती, व्याकुल करती अति स्वच्छन्द।
सीमासे अतीत उस स्मृतिसे होता उदय अमित आनन्द॥
वह आनन्द नित्य पल-पल नव-पीड़ाका उद्भव करता।
पीड़ासे फिर स्मृति बढ़ती, फिर नवानन्द मनमें भरता॥
यों ही अमिलन-दुख स्मृति-सुखका सागर रहता लहराता।
उसमें सहज प्रिये! मैं रहता सतत डूबता-उतराता॥
बीच-बीचमें मिलनाकांक्षा बढक़र उग्र रूप धरती।
तब हो उदित रूप-माधुरि मधु मनके सारे दुख हरती॥