राधा-सखी संवाद / सूरदास
घरहिं जाति मन हरष बढ़ायौ ।
दुख डार्यौ, सुख अंग भार भरि, चली लूट सौ पायौ ॥
भौंह सकोरति चलति मंद गति, नैकु बदन मुसुकायौ ।
तहँ इक सखी मिली राधा कौं, कहति भयौ मन भायौ ।
कुँज-भवन हरि-सँग बिलसि रस, मन कौ सुफल करायौ ॥
सूर सुगंध चुरावनहारौ, कैसैं दुरत दुरायौ ॥1॥
मोसौं कहा दुरावति राधा ।
कहाँ मिली नँद-नंदन कौं, जिनि पुरई मन की साधा ॥
ब्याकुल भई फिरति ही अबहीं, काम-बिथा तनु बाधा ।
पुलकित रोम रोम गद-गद, अब अँग अँग रूप अगाधा ॥
नहिं पावत जो रस जोगी जन, जप तप करता समाधा ।
सुनहुँ सूर तिहिं रस परिपूरन, दूरि कियौ तनु दाधा ॥2॥
स्याम कौन कारे की गोरे ।
कहाँ रहत काकै पै ढोटा, वृद्ध, तरुन की धौं हैं भोरे ॥
इहँई रहत कि और गाउँ कहूँ, मैं देखे नाहिं न कहू उनको ।
कहै नहीं समुझाइ बात यह मोहिं लगावति हौ तुम जिनकौं ॥
कहाँ रहौं मैं, वै धौं कहँकै, तुम मिलवति हो काहैं ऐसी ।
सुनहु सूर मोसी भोरी कौं, जोरि जोरि लावति हौ कैसी ॥3॥
सुनहु सखी राधा की बातैं ।
मौसौ कहति स्याम हैं कैसे, ऐसी मिलई घातैं ॥
की गोरे, की कारे-रँग हरि, की जोबन, की भोरे ।
की इहिं गाउँ बसत, की अनतहिं, दिननि बहुत की थोरे ॥
की तू कहति बात हँसि मोसौं, की बूझति सति -भाउ ।
सपनैं हूँ उनकौं नहिं देखे, बाके सुनहु उपाउ ॥
मोसौ कही कौन तोसी प्रिय, तोसौं बात दुरैहौं ।
सूर कही राधा मो आगैं, कैसें मुख दरसैहौं ॥4॥
राधा तेरौ बदन बिराजत नीकौ ।
जब तू इत-उत बंक बिलोकति, होत निसा-पति फीकौ ॥
भृकुटी धनुष, नैन सर, साँधे, सिर केसरि कौ टीकौ ।
मन घूँघट-पट मैं दुरि बैठ्यौ, पारधि रति-पतिही कौ ॥
गति मैमंत नाग ज्यौं नागरि, करे कहति हौं लीकौ !
सूरदास-प्रभु बिबिध भाँति करि, मन रिझायौ हरि पी कौ ॥5॥
काकौ काकौ मुख माई बातनि कौं गहियै ॥
पाँत की सात लगायौ, झूठी झूठी कै बनायौ, साँची जौ तनक होइ, तौलौं सब सहियै ॥
बातनि गह्यौ अकास, सुनत न आवै साँस, बोलि तौ कछु न आवै,तातैं मौन गहियै ।
ऐसैं कहैं नर नारि, बिना भीति चित्रकारि, काहे कों देखे मैं कान्ह कहा कहौ कहियै ॥
घर घर यहै घैर, बृथा मोसौं करै बैर यह सुनि स्रौन, हिरदय दहिए ।
सूरदास बरु उपहास होइ सिर मैरैं, नँद की सुवन मिलै तौ पै कहा चहियै ॥6॥
कैसै हैं नँद-सुवन कन्हाई ।
देखे नहीं नैन भरि कबहूँ, ब्रज मैं रहत सदाई ॥
सकुचति हौं इक बात कहति तोहिं, सो नहिं जाति सुनाई ॥
कैसैहुँ मोहिं दिखावहु उनकौं, यह मेरैं मन आई ॥
अतिहीं सुंदर कहियत हैं वै, मोकौं देहु बताई ।
सूरदास राधा की बानी, सुनत सखी भरमाई ॥7॥
सुनहु सखी राधा की बानी ।
ब्रज बसि हरि देखे नहिं कबहूँ, लोग कहत कछु अकथ कहानी ॥
यह अब कहति दिखावहु हरि कौं , देखहु री यह अचिरज मानी ।
जो हम सुनति रही सो नाहीं, ऐसै ही यह वायु बहानी ॥
ज्वाब न देत बनै काहू सौं, मन मैं यह काहू नहिं मानी ।
सूर सबै तरुनी मुख चाहतिं, चतुर चतुर सौं चतुरई ठानी ॥8॥
सुनि राधे तोहिं स्याम दिखैहैं ।
जहाँ तहाँ ब्रज-गलिनि फिरत हैं, जब इहिं मारग ऐहैं ॥
जबहीं हम उनकौ देखैंगी तबहीं तोहिं बुलैहैं ।
उनहूँ कै लालसा बहुत यह, तोहिं देखि सुख पैहैं ॥
दरसन तैं धीरज जब रैहै, तब हम तोहि पत्यैहैं
तुमकौं देखि स्याम सुंदर घन, मुरली मधुर बजैहैं ॥
तनु त्रिभंग करि अंग-अंग सौं, नाना भाव जनैंहैं ।
सूरदास-प्रभु नवल कान्ह बर, पीतांबर फहरैहैं ॥9॥