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राधा गोपी नहीं भोग की / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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राधा-गोपी नहीं भोग की नीच भूमिकापर रहतीं।
अतुल मोदसे सभी दुःख-कष्ट-विपत्तियों को सहतीं॥
सहज स्व-सुख-वाछाके तरुको समुद समूल छिन्न करतीं।
निजको भूल, सदा प्रिय-सुखके लिये स-सुख जीतीं-मरतीं॥
स्तुति-निन्दा, मानापमान, सुख-दुःख-द्वन्द्व सारे तजतीं।
योगक्षेम त्याग निज सब, प्रियतम-सुखको केवल भजतीं॥
नहीं स्वर्गकी तनिक कामना, नहीं नरकसे कुछ डरतीं।
प्रियतम-सुखकी अविचल स्मृतिसे भेद-विषमता सब हरतीं॥
सेवामें बाधक न मुक्ति कैवल्य उन्हें अच्छी लगती।
प्रिय-सेवा-तत्पर वे सुनकर ‘मुक्ति’ नाम डरतीं-भगतीं॥
सेवामयी नित्य, पर मन अभिमान नहीं किंचित्‌‌ भरतीं।
प्रियतम-सुख-स्वरूप मन की इच्छाको ही नित अनुसरतीं॥
यों भौतिक-‌आध्यात्मिक जग को उच्च त्याग-शिक्षा देतीं।
नीच अहं-‌इन्द्रिय-मनके सुख-संकल्पों को हर लेतीं॥