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राधा विरह / कालीकान्त झा ‘बूच’
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श्याम होइछ परक प्रेम अधलाह हे
तेॅ बिसरि जाह हमरा बिसरि जाह हे
दीप बुझि रूप केॅ जुनि हृदय मे धरह,
मोहवाती जरा तेल नेहक भरह
कऽ देतऽ जिन्दगी केॅ ई सुड्डाह हे,
तेॅ बिसरि जाह हमरा विसरि जाह हे
हऽम मधुवन मे साँझक पहिल तारिका,
तोॅ फराके बनावह अपन द्वारिका
उठि रहल अछि अनेरेक अफवाह हे
हम विमल राशक खास संयोजिका,
छी प्रवल गोपक प्रेयसी गोपिका
घाट सँ खुलि चुकल अछि हमर नाह हे,
मोन मे उत्तरी सागरक जल भरह,
लाख चुचुकारी बर्फक महल मे धरह,
हम तहू ठाम बरबानलक धाह हे