रानी दुर्गावती / रामचंद्र शुक्ल
आइ लखहु सब वीर कहा यह परत लखाई।
बिना समय यह रेनु रही आकाश उड़ाई।।1
ये वन के मृग डरे सकल क्यों आवत भागी।
इहाँ कहूँ हूँ लगी नहीं हैं देख हुँ आगी।।2
यह दुन्दुभि को शब्द सुनो, यह भीषण कलरव।
यह घोड़न की टाप शिलन पर गूँज रही अब।।3
आर्य्य रुधिर हा एक बेर ही सोवत जान्यो।
अबला शासक मानि देश जीवन अनुमान्यो।।4
शेष रुधिर को बँद एक हूँ जब लगि तन महँ।
को समर्थ पग धरन हेतु यह रुचिर भूमि महँ।।5
तुरत दूत इक आये सुनायो समाचार यह।
आसफ अगनित सैन लिये आवत चढ़ि पुर महँ।।6
छिन छिन पर रहि दृष्टि सकल वीरन दिसि धावति।
कँपत गत रिस भरी खड़ी रानी दुर्गावति।।7
श्वेत वसन तन, रतन मुकुट माथे पर दमकत।
श्रवत तजे मुख, नयन अनल कण होत बहिर्गत।।8
सुघर बदन इमि लहत रोष की रुचिर झलक ते।
कद्बचन आभा दुगुन होत जिमि आँच दिये ते।।9
चपल अश्व की पीठ वीर रमणी यह को हैं?
निकसि दुर्ग के द्वार खड़ी वीरन दिसि जो हैं।।10
वाम कंध बिच धनुष, पीठ तरकस कसि बाँधे।
कर महँ असि को धरे, वीर बानक सब साधे।।11
चुवत वदन सन तेज और लावण्य साथ इमि।
हैं मनोहर संजोग वीर शृंगार केर जिमि।।12
नगर बीच हैं सेन कढ़ी कोलाहल भारी।
पुरवासिन मिलि बार बार जयनाद पुकारी ।।13
सम्मुख गज आसीन निहारयो आसफ खाँ को।
महरानी निज वचन अग्रसर कियो ताहि को ।।14
"अरे-अधम! रे नीच! महा अभिमानी पामर!
दुर्गावति के जियत चहत गढ़ मंडल निज कर।।15
म्लेच्छ! यवन की हरम केर हम अबला नाहीं।
आर्य्य नारि नहिं कबहुँ शस्त्रा धारत सकुचाहीं"।।16
चमकि उठे पुनि शस्त्रा दामिनी सम घन माहीं।
भयो घोर घननाद युद्ध को दोउ दल माहीं।।17
दुर्गावत निज कर कृपान धारन यह कीने।
दुर्गावति मन मुदित फिरत वीरन संग लीने।।18
सहसा शर इक आय गिरयो ग्रीवा के ऊपर।
चल्यौ रुधिर बहि तुरत, मच्यो सेना बिच खरभर।।19
श्रवत रुधिर इमि लसत कनक से रुचिर गात पर।
छुटत अनल परवाह मनहुँ कोमल पराग पर।।20
चद्बचल करि निज तुरग सकल वीरन कहँ टेरी।
उन्नत करि भुज लगी कहन चारिहु दिशि हेरी।।21
अरे वीर उत्साह भंग जनि होहि तुम्हारो।
जब लगि तन मधि प्राण पैर रन से नहिं टारो।।22
लै कुमार को साथ दुर्ग की ओर सिधारहु।
गढ़ की रक्षा प्राण रहत निज धर्म्म बिचारहु।।23
यवन सेन लखि निकट, लोल लोचन भरि वारी।
गढ़ मंडल ये अंत समय की विदा हमारी।।24
यों कहि हन्यो कटार हीय बिच तुरत उठाई।
प्राण रहित शुचि देह परयो धरनीतल आई।।25
('सरस्वती', जून, 1903)