रानी बनके रहऽ / सिलसिला / रणजीत दुधु
हे धानी रानी बनके रहऽ
सास से तों सेवा करवालऽ
गोड़ आउ हाथ दवबावऽ
ससुर के टहलुआ बनावऽ
बासी जुट्ठा रोज खिलावऽ
सभे पर तों रोब जमावऽ
एक्को बात नै केकरो सहऽ
हे धानी रानी बनके रहऽ
गोतनी ननद के बनवऽ दाय
भँयसुर देवर के समझऽ छाय
भुलियो के नय बेलिहा रोटी
जहो कोय बोलो धरिहा झोंटी
सुत उठ के तों रोजे झगड़ऽ
सबके निरवंशी पिलुअहवा कहऽ
हे धानी रानी बनके रहऽ
अपने खइहऽ बुतरू के खिलइहऽ
बचल दूध कुतवा के पिलइहऽ
केकरो पेट में नैं पच्चे पानी
ऐसन ऐसन बोलिहा कटु वानी
टोला पड़ोसी जो दो कुबुद्धि
ओकरे तरफ तों लहऽ
हे धानी रानी बनके रहऽ
सरग से सुंदर घर के फोड़ऽ
अप्पन मउसी बहिन से नाता जोड़ऽ
हमरा बुझिहा नफ्फारो से बत्तर
घरो भर से तों रहिहा उप्पर
बाँट के चुल्हा अलगे करला
ही लुरगर ई बात के महऽ
हे धानी रानी बनके रहऽ
सब कुछ बेच के जेबर बनाला
बनारसी साड़ी कसमीरी दोसाला
दिनों में तों पेन्हऽ नायटी
बदल ला अप्पन सोसायटी
भुल जा भारतीय सभ्यता के
पश्चिमी सभ्यता में बहऽ
हे धानी रानी बनके रहऽ
देखऽ हऽ रोज टीभी पर दुनिया
कतना हे सुखिया कतना दुखिया
तोरा ले हम की नय कयलूँ
माय बाप घर परिवार लुटयलूँ
एतनो से जो न´ तों अघयली
दोसर मरद के करगा गहऽ
हे धानी रानी बनके रहऽ