भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रामगढ़ में आकाश के भी ऊपर परछाईं / वीरेन डंगवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मंथर चक्‍कर लगा कर
चीलें
सुखा रहीं अपने डैनों की सीलन को
नीचे हरी-भरी घाटी के किंचित बदराये शून्‍य में
वही आकाश है उनका उतने नीचे

रात-भर बरसने के बाद
अब जाकर सकुचाई-सी खुली है धूप

मेरी परछांई पड़ रही
बूंदे टपकाते
बैंगनी-गुलाबी फलों से खच्‍च लदे
आलूचे के पेड़ पर
बीस हाथ नीचे
मगर उस आकाश से काफी ऊपर.