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रामगढ़ में आकाश के भी ऊपर परछाईं / वीरेन डंगवाल
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मंथर चक्कर लगा कर
चीलें
सुखा रहीं अपने डैनों की सीलन को
नीचे हरी-भरी घाटी के किंचित बदराये शून्य में
वही आकाश है उनका उतने नीचे
रात-भर बरसने के बाद
अब जाकर सकुचाई-सी खुली है धूप
मेरी परछांई पड़ रही
बूंदे टपकाते
बैंगनी-गुलाबी फलों से खच्च लदे
आलूचे के पेड़ पर
बीस हाथ नीचे
मगर उस आकाश से काफी ऊपर.