रामगढ़ से हिमालय की तीन छवियाँ-3 / सिद्धेश्वर सिंह
अभी तो
कवि कविता करते हैं
और कहानीकार बुनता है कोई कहानी
आलोचक चुप रहते हैं
उन्हें नहीं सूझता गुण-दोष ।
अभी तो
आलमारियों में बन्द हैं क़िताबें
जो ख़ुद से बतियाती हैं निश्शब्द
सड़क पहचानती है सबके पैरों के निशान
पेड़ इशारा करते हैं हिमशिखरों की ओर ।
संगोष्ठी के समापन पर
करतल ध्वनि करता है हिमालय
शायद कोई नहीं देख रहा है
विदा में उठा हुआ उसका हाथ ।
मैदानों में उतरकर
कवि कविता करते रहेंगे
कहानीकार बुनते रहेंगे कहानियाँ
आलोचक चुप्पी तोड़ेंगे और निकालेंगे मीन-मेख
फिर भी
सबके सपनों में आएगा हिमालय
हाँ , वही हिमालय
वही नगाधिराज
जिसके लिए सुमित्रानंदन ने अपनी कविताओं में
लुटाया है बेशुमार सोना
वही हिमालय
जहाँ महादेवी वर्मा को बादल में दिखा था रूपसी का केशपाश
वही हिमालय
जहाँ खिलते हैं बुराँश
और मैदानों को आर्द्र करने के लिए निकलती हैं नदियाँ ।
आइए, यह भी याद करें
यह वही हिमालय है वही नगाधिराज
हमारी लालसाओं की भठ्ठी की आँच से
पिघल रही है जिसकी देह
और कोपेनहेगेन के सम्म्लेन द्वार तक
शायद पहुँच रही जिसकी करुण पुकार ।