रामधारी सिंह दिनकर / विजय कुमार विद्रोही
क्या लिख्खूँ गद्दारों पर,ये कलम न लिखने देती है ।
महाकुशा इस उर के , कोई भाव न बिकने देती है ।
हत्यारे अब राष्ट्रकवि की , जात सूँघने निकले हैं ।
द्वंद्वगीत , हुंकारों की , औक़ात ढ़ूंढने निकले हैं ।
जिनका अक्षरकोष समूची , राजनीति पर भारी है ।
जिनके छंदों का ये पूरा , काव्यजगत आभारी है ।
जिनका गर्जन तप्तवज्र था, सरस्वती की वाणी थी ।
माँ हिंदी के अमरपूत की, हर रचना कल्याणी थी ।
अनललेख का पालक था, वो ओजप्राण था हिंदी का ।
अतिदिव्यपुंज था माँ भाषा की, महिमामंडित बिंदी का ।
कवि दर्पण कहलाता है, जनमानस के अधिकारों का ।
हर शब्द घोष करता है, सारे कारों का, प्रतिकारों का ।
दौलत के लालच में हम, सम्मान नहीं बिकवाते हैं ।
हिंदसमर्पित जीवन है , अभिमान नहीं बिकवाते हैं ।
आँचल का माँ के मोल लगा बैठे हो,तुम क्या जानोगे ।
“समर शेष है”! लगता अब , होगा यह तब ही मानोगे !