रामनरेश त्रिपाठी / परिचय
रामनरेश त्रिपाठी का जन्म सुलतानपुर जिले के कोइरीपुर ग्राम में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा जौनपुर में ही हुई। इन्होंने कविता के अलावा उपन्यास, नाटक, आलोचना, हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास तथा बालोपयोगी पुस्तकें लिखीं और 'कविता कौमुदी (आठ भाग में), हिंदी, उर्दू, संस्कृत, बंगला की कविताएं तथा 'ग्राम्य गीत (कविता संकलन) संपादित और प्रकाशित किए। इनकी मुख्य काव्य-कृतियां हैं- 'मिलन, 'पथिक, 'स्वप्न तथा 'मानसी। 'स्वप्न पर इन्हें हिंदुस्तान अकादमी का पुरस्कार मिला। ये प्राक्छायावादी युग के महत्वपूर्ण कवि हैं जिन्होंने राष्ट्रप्रेम की कविताएं भी लिखीं।
परिचय
“हे प्रभो आनन्ददाता ज्ञान हमको दीजिए ....” जैसा प्रेरणादायी गीत रचकर, प्रार्थना के रूप में स्कूलों में छात्रों व शिक्षकों की वाणी में बसे, महाकवि पंडित रामनरेश त्रिपाठी साहित्य के आकाश के चमकीले नक्षत्र थे। उनकी पुण्य तिथि 16 जनवरी को मना कर राष्ट्र एक बार फिर उनके प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित कर रहा है।
उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले के ग्राम कोयरीपुर में चार मार्च 1889 को एक कृषक परिवार में जन्मे पं. रामनरेश त्रिपाठी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व अत्यन्त प्रेरणादायी था। उनके पिता पं. रामदत्त त्रिपाठी परम धर्म व सदाचार परायण ब्राहमण थे।
भारतीय सेना में सूबेदार के पद पर रह चुके पंडित रामदत्त त्रिपाठी का रक्त पं.रामनरेश त्रिपाठी की रगों में धर्मनिष्ठा, कर्तव्यनिष्ठा व राष्ट्रभक्ति की भावना के रूप में बहता था। दृढता, निर्भीकता और आत्मविश्वास के गुण उन्हें अपने परिवार से ही मिले थे।
पं.त्रिपाठी की प्रारम्भिक शिक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल में हुई।
जूनियर कक्षा उत्तीर्ण कर हाईस्कूल वह निकटवर्ती जौनपुर जिले में पढने गए मगर वह हाईस्कूल की शिक्षा पूरी नहीं कर सके। अट्ठारह वर्ष की आयु में पिता से अनबन होने पर वह कलकत्ता चले गए।
पंडित त्रिपाठी में कविता के प्रति रुचि प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करते समय जाग्रत हुई थी। संक्रामक रोग हो जाने की वजह से वह कलकत्ता में भी अधिक समय तक नहीं रह सके। सौभाग्य से एक व्यक्ति की सलाह मानकर वह स्वास्थ्य सुधार के लिए जयपुर राज्य के सीकर ठिकाना स्थित फतेहपुर ग्राम में सेठ रामवल्लभ नेवरिया के पास चले गए।
यह एक संयोग ही था कि मरणासन्न स्थिति में वह अपने घर परिवार में न जाकर सुदूर अपरिचित स्थान राजपूताना के एक अजनबी परिवार में जा पहुंचे जहां शीघ्र ही इलाज व स्वास्थ्यप्रद जलवायु पाकर रोगमुक्त हो गए ।
पंडित त्रिपाठी ने सेठ रामवल्लभ के पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा की जिम्मेदारी को कुशलतापूर्वक निभाया। इस दौरान उनकी लेखनी पर मां सरस्वती की मेहरबानी हुई और उन्होंने “हे प्रभो आनन्ददाता..” जैसी बेजोड़ रचना कर डाली जो आज भी अनेक स्कूलों में प्रार्थना के रूप में गाई जाती है।
फतेहपुर में पं.त्रिपाठी की साहित्य साधना की शुरुआत होने के बाद उन्होंने उन दिनों तमाम छोटे-बडे बालोपयोगी काव्य संग्रह, सामाजिक उपन्यास और हिन्दी महाभारत लिखे। उन्होंने हिन्दी तथा संस्कृत के सम्पूर्ण साहित्य का गहन अध्ययन किया।
वर्ष 1915 में पं. त्रिपाठी ज्ञान एवं अनुभव की संचित पूंजी लेकर पुण्यतीर्थ एवं ज्ञानतीर्थ प्रयाग गए और उसी क्षेत्र को उन्होंने अपनी कर्मस्थली बनाया। थोडी पूंजी से उन्होंने प्रकाशन का व्यवसाय भी आरम्भ किया। पंडित त्रिपाठी ने गद्य और पद्य का कोई कोना अछूता नहीं छोडा तथा मौलिकता के नियम को ध्यान में रखकर रचनाओं को अंजाम दिया। हिन्दी जगत में वह मार्गदर्शी साहित्यकार के रूप में अवरित हुए और सारे देश में लोकप्रिय हो गए ।
उन्होंने वर्ष 1920 में 21 दिन में हिन्दी के प्रथम एवं सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रीय खण्डकाव्य “पथिक” की रचना की । इसके अतिरिक्त “मिलन” और “स्वप्न” भी उनके प्रसिद्ध मौलिक खण्डकाव्यों में शामिल हैं।
कविता कौमुदी के सात विशाल एवं अनुपम संग्रह-ग्रंथों का भी उन्होंने बडे परिश्रम से सम्पादन एवं प्रकाशन किया ।
पं. त्रिपाठी कलम के धनी ही नहीं बल्कि कर्मशूर भी थे । महात्मा गांधी के निर्देश पर वे हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रचार मंत्री के रूप में हिन्दी जगत के दूत बनकर दक्षिण भारत गए थे। वह पक्के गांधीवादी देशभक्त और राष्ट्र सेवक थे। स्वाधीनता संग्राम और किसान आन्दोलनों में भाग लेकर वह जेल भी गए।
पं. त्रिपाठी को अपने जीवन काल में कोई राजकीय सम्मान तो नही मिला पर उससे भी कही ज्यादा गौरवप्रद लोक सम्मान तथा अक्षय यश उन पर अवश्य बरसा। उन्होंने 16 जनवरी 1962 को अपने कर्मक्षेत्र प्रयाग में ही अंतिम सांस ली।
पंडित त्रिपाठी के निधन के बाद आज उनके गृह जनपद सुलतानपुर में एक मात्र सभागार स्थापित है जो उनकी स्मृतियों को ताजा करता है।