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रामप्रेम ही सार है / तुलसीदास/ पृष्ठ 13

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रामप्रेम ही सार है-13

 (61)
 
छारतें सँवारि के पहारहू तें भारी कियो,
गारो भयो पंचमें पुनीत पच्छु पाइ कै।

हौं तो जैसो तब तैसो अब अधमाई कै कै,
 पेटु भरौं, राम! रावरोई गुनु गाइकै।।

 आपने निवाजेकी पै कीजै लाज, महाराज!
 मेरी ओर हेरि कै न बैठिऐ रिसाइ कै।

पालिकै कृपाल! ब्याल-बालक-बालको न मारिए,
 औ काटिए न नाथ! बिषहूको रूख लाइ कै।61।

(62)

 बेद न पुरान-गानु, जानौं न बिग्यानु ग्यानु,
 ध्यान-धारना-समाधि-साधन -प्रबीनता।


नाहिन बिरागु, जोग, जाग भाग तुलसी कें,
दया-दान दूबरो हौं, पापही की पीनता।।

लोभ-मोह-काम-कोह -दोस-कोसु-मोसो कौन?
कलिहूँ जो सीखि लई मेरियै मलीनता।

 एकु ही भरोसो राम! रावरो कहावत हौं ,
 रावरे दयालु दीनबंधु ! मेरी दीनता।62।