रामायण का एक सीन / बृज नारायण चकबस्त / भाग १
रुखसत हुआ वो बाप से ले कर खुदा का नाम
राह-ए-वफ़ा की मन्ज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम
मन्ज़ूर था जो माँ की ज़ियारत का इंतज़ाम
दामन से अश्क पोंछ के दिल से किया कलाम
इज़हार-ए-बेकसी से सितम होगा और भी
देखा हमें उदास तो ग़म होगा और भी
दिल को संभालता हुआ आखिर वो नौनिहाल
खामोश माँ के पास गया सूरत-ए-खयाल
देखा तो एक दर में है बैठी वो खस्ता हाल
सकता सो हो गया है, ये है शिद्दत-ए-मलाल
तन में लहू का नाम नहीं, ज़र्द रंग है
गोया बशर नहीं, कोइ तस्वीर-ए-संग है
क्या जाने किस खयाल में गुम थी वो बेगुनाह
नूर-ए-नज़र पे दीद-ए-हसरत से की निगाह
जुम्बिश हुई लबों को, भरी एक सर्द आह
ली गोशाहाए चश्म से अश्कों ने रुख की राह
चेहरे का रंग हालत-ए-दिल खोलने लगा
हर मू-ए-तन ज़बाँ की तरह बोलने लगा
आखिर, असीर-ए-यास का क़ुफ़्ले-दहन खुला
अफ़साना-ए-शदायद-ए-रंज-ओ-महन खुला
इक दफ़्तर-ए-मुज़ालिम-ए-चर्ख-ए-कुहन खुला
वो था दहां-ए-ज़ख्म, के बाब-ए-सुखन खुला
दर्द-ए-दिल-ए-ग़रीब जो सर्फ़-ए-बयां हुआ
ख़ून-ए-जिगर का रंग सुखन से अयां हुआ
रो कर कहा; खामोश खड़े क्यों हो मेरी जाँ?
मैं जानती हूँ, किस लिये आये हो तुम यहाँ
सब की खुशी यही है तो सहरा को हो रवाँ
लेकिन मैं अपने मुँह से न हर्गिज़ कहूँगी "हाँ"
किस तरह बन में आँख के तारे को भेज दूँ?
जोगी बना के राज दुलारे को भेज दूँ?
दुनिया का हो गया है ये कैसा लहू सफ़ेद?
अंधा किये हुए है ज़र-ओ-माल की उम्मेद
अंजाम क्या हुआ? कोई नहीं जानता ये भेद
सोचे बशर, तो जिस्म हो लर्ज़ां मिसाल-ए-बेद
लिखी है क्या हयात-ए-अबद इन के वास्ते?
फैला रहे हैं जाल ये किस दिन के वास्ते?
लेती किसी फ़क़ीर के घर में अगर जनम
होते न मेरी जान को सामान ये बहम
डसता न साँप बन के मुझे शौकत-ओ-हशम
तुम मेरे लाल, थे मुझे किस सल्तनत से कम
मैं खुश हूँ फूँक दे कोई इस तख़्त-ओ-ताज को
तुम ही नहीं, तो आग लगाऊँगी राज को
किन किन रियाज़तों से गुज़ारे हैं माह-ओ-साल
देखी तुम्हारी शक्ल जब ऐ मेरे नौ-निहाल!
पूरा हुआ जो ब्याह का अरमान था कमाल
आफ़त आयी मुझ पे, हुए जब सफ़ेद बाल
छूटती हूँ उन से, जोग लें जिन के वास्ते
क्या सब किया था मैने इसी दिन के वास्ते?
ऐसे भी नामुराद बहुत आयेंगे नज़र
घर जिन के बेचिराग़ रहे आह! उम्र भर
रहता मेरा भी नख्ल-ए-तमन्ना जो बेसमर
ये जा-ए सबर थी, के दुआ में नहीं असर
लेकिन यहाँ तो बन के मुक़द्दर बिगड़ गया
फल फूल ला के बाग़-ए-तमन्ना उजड़ गया
सरज़ाद हुए थे मुझसे खुदा जाने क्या गुनाह
मझधार में जो यूँ मेरी कश्ती हुई तबाह
आती नज़र नहीं कोई अमन-ओ-अमां कि राह
अब यां से कूच हो तो अदम में मिले पनाह
तक़्सीर मेरी, खालिक़-ए-आलम बहल करे
आसान मुझ गरीब की मुश्किल अजल करे
सुन कर ज़बाँ से माँ की ये फ़रयाद दर्द-ख़ेज़
उस खस्त जाँ के दिल पे ग़म की तेग-ए-तेज़
आलम ये था क़रीब, के आँखें हों अश्क-रेज़
लेकिन हज़ार ज़ब्त से रोने से की गुरेज़
सोचा यही, के जान से बेकस गुज़र न जाये
नाशाद हम को देख कर माँ और मर न जाये
फिर अर्ज़ की ये मादर-ए-नाशाद के हुज़ूर
मायूस क्यूं हैं आप? अलम का है क्यूं वफ़ूर?
सदमा ये शाक़ आलम-ए-पीरी है ज़रूर
लेकिन न दिल से कीजिये सब्र-ओ-क़रार दूर