रामायण का एक सीन / बृज नारायण चकबस्त / भाग ३
ये गुफ़्तगू ज़रा न हुई माँ पे कारगर
हँस कर वुफ़ूर-ए-यास से लड़के पे की नज़र
चेहरे पे यूँ हँसी का नुमायाँ हुआ असर
जिस तरह चांदनी का हो शमशान में गुज़र
पिन्हां जो बेकसी थी, वो चेहरे पे छा गई
जो दिल की मुर्दनी थी, निगाहों में आ गई
फिर ये कहा के मैनें सुनी सब ये दस्तान
लाखों बरस की उम्र हो, देते हो माँ को ज्ञान
लेकिन जो मेरे दिल को है दरपेश इम्तिहान
बच्चे हो, उसका इल्म नहीं तुमको बेगुमान
उस दर्द का शरीक तुम्हारा जिगर नहीं
कुछ ममता की आँच की तुम को ख़बर नहीं
आख़िर है उम्र, है ये मेरा वक़्ते-वापिसी
क्या ऐतबार, आज हूँ दुनिया में, कल नहीं
लेकिन वो दिन भी आयेगा, इस दिल को है यक़ीन
सोचोगे जब कि रोती थी क्यूँ मादर-ए-हज़ीं
औलाद जब कभी तुम्हे सूरत दिखायेगी
फ़रियाद इस ग़रीब कि तब याद आयेगी
इन आँसूओं की क़दर तुम्हे कुछ अभी नहीं
बातों से जो बुझे, ये वो दिल कि लगी नहीं
लेकिन तुम्हें हो रंज, ये मेरी खुशी नहीं
जाओ, सिधारो, खुश रहो, मैं रोकती नहीं
दुनिया में बेहयाई से ज़िन्दा रहूँगी मैं
पाला है मैनें तुम को, तो दुख भी सहूँगी मैं
नश्तर थे राम के लिये ये हर्फ़-ए-आरज़ू
दिल हिल गया, सरकने लगा जिस्म से लहू
समझे जो माँ के दीन को इमान-ओ-आबरू
सुननी पड़े उसको ये ख़ज़ालत की गुफ़्तगु
कुछ भी जवाब बन न पड़ा फ़िक्र-ओ-ग़ौर से
क़दमों पे माँ के गिर पड़ा आँसू के तौर से
तूफ़ान आँसूओं का ज़बान से हुआ न बन्द
रुक रुक के इस तरह हुआ गोया वो दर्दमंद
पँहुची है मुझसे आप के दिल को अगर गज़न्द
मरना मुझे क़बूल है, जीना नहीं पसन्द
जो बेवफ़ा है मादर-ए-नशाद के लिये
दोज़ख ये ज़िन्दगी है उस औलाद के लिये
है दौर इस ग़ुलाम से ख़ुद राई का ख़याल
ऐसा गुमान भी हो, ये मेरी नहीं मजाल
ग़र सौ बरस भी उम्र को मेरी न हो ज़वाल
जो दीन आपका है, अदा हो, ये है मुहाल
जाता कहीं न छोड़ के क़दमों को आपके
मजबूर कर दिया मुझे वादे ने बाप के
आराम ज़िन्दगी का दिखाता है सब्ज़-बाग़
लेकिन बहार ऐश का मुझको नहीं दिमाग़
कहते हैं जिसको धरम, वो दुनिया का है चिराग़
हट जाऊँ इस रविश से, तो कुल में लगेगा दाग़
बेआबरू ये वंश न हो, ये हवास है
जिस गोद में पला हूँ, मुझे उस का पास नहीं
वनवास पर खुशी से जो राज़ी न हूँगा मैं
किस तरह से मुँह दिखाने के क़ाबिल रहूँगा मैं?
क्यूँ कर ज़बान-ए-गै़र के ताने सुनूँगा मैं?
दुनिया जो ये कहेगी, तो फिर क्या कहूँगा मैं?
लड़के ने बेहयाई को नक़्श-ए-ज़बीं किया
क्या बेअदब था, बाप का कहना नहीं किया
तासीर का तिलिस्म था मासूम का खिताब
खुद माँ के दिल को चोट लगी सुन के ये जवाब
ग़म की घटा मिट गयी, तारीकि-ए-एइताब
छाती भर आयी, ज़ब्त की बाक़ी रही न ताब
सरका के पाँव गोद में सर को उठा लिया
सीने से अपने लख़्त-ए-जिगर को लगा लिया
दोनों के दिल भर आये, हुआ और ही समाँ
गंग-ओ-जमन की तरह से आँसू हुए रवाँ
हर आँख को नसीब ये अश्क-ए-वफ़ा कहाँ?
इन आँसूओं क मोल अगर है तो नक़द-ए-जाँ
होती है इन की क़दर फ़क़त दिल के राज में
ऐसा गुहर न था कोई दशरथ के ताज में