राम और कौशल्या की बातचीत का मंज़र / बृज नारायण चकबस्त / भाग ४
रुख़्सत हुआ वो बाप से लेकर ख़ुदा का नाम
राह-ए-वफ़ा की मंज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम
मंज़ूर था जो मां की ज़ियारत का इंतिज़ाम
दामन से अश्क पोंछ के दिल से किया कलाम
इज़हार-ए-बे-कसी से सितम होगा और भी
देखा हमें उदास तो ग़म होगा और भी
दिल को संभालता हुआ आख़िर वो नौनिहाल
ख़ामोश मां के पास गया सूरत-ए-ख़याल
देखा तो एक दर में है बैठी वो ख़स्ता-हाल
सकता सा हो गया है ये है शिद्दत-ए-मलाल
तन में लहू का नाम नहीं ज़र्द रंग है
गोया बशर नहीं कोई तस्वीर-ए-संग है
क्या जाने किस ख़याल में गुम थी वो बे-गुनाह
नूर-ए-नज़र ये दीदा-ए-हसरत से की निगाह
जुम्बिश हुई लबों को भरी एक सर्द आह
ली गोशा-हा-ए-चश्म से अश्कों ने रुख़ की राह
चेहरे का रंग हालत-ए-दिल खोलने लगा
हर मू-ए-तन ज़बां की तरह बोलने लगा
आख़िर असीर-ए-यास का क़ुफ़्ल-ए-दहन खुला
अफ़्साना-ए-शदाइद-ए-रंज-ओ-मेहन खुला
इक दफ़्तर-ए-मज़ालिम-ए-चर्ख़-ए-कुहन खुला
वा था दहान-ए-ज़ख़्म कि बाब-ए-सुख़न खुला
दर्द-ए-दिल-ए-ग़रीब जो सर्फ़-ए-बयां हुआ
ख़ून-ए-जिगर का रंग सुख़न से अयां हुआ
रो कर कहा ख़मोश खड़े क्यूं हो मेरी जां
मैं जानती हूं जिस लिए आये हो तुम यहां
सबकी ख़ुशी यही है तो सहरा को हो रवां
लेकिन मैं अपने मुंह से न हरगिज़ कहूंगी हां
किस तरह बन में आँखों के तारे को भेज दूँ
जोगी बनाके राज-दुलारे को भेज दूं
दुनिया का हो गया है ये कैसा लहू सपीद
अंधा किये हुए है ज़र-ओ-माल की उमीद
अंजाम क्या हो कोई नहीं जानता ये भेद
सोचे बशर तो जिस्म हो लर्ज़ां मिसाल-ए-बीद
लिक्खी है क्या हयात-ए-अबद इन के वास्ते
फैला रहे हैं जाल ये किस दिन के वास्ते
लेती किसी फ़क़ीर के घर में अगर जनम
होते न मेरी जान को सामान ये बहम
डसता न साँप बन के मुझे शौकत-ओ-हशम
तुम मेरे लाल थे मुझे किस सल्तनत से कम
मैं ख़ुश हूं फूंक दे कोई इस तख़्त-ओ-ताज को
तुम ही नहीं तो आग लगा दूंगी राज को
किन किन रियाज़तों से गुज़ारे हैं माह-ओ-साल
देखी तुम्हारी शक्ल जब ऐ मेरे नौनिहाल
पूरा हुआ जो ब्याह का अरमान था कमाल
आफ़त ये आयी मुझ पे हुए जब सफ़ेद बाल
छटती हूं उन से जोग लिया जिन के वास्ते
क्या सब किया था मैंने इसी दिन के वास्ते
ऐसे भी ना-मुराद बहुत आएंगे नज़र
घर जिनके बे-चराग़ रहे आह उम्र भर
रहता मिरा भी नख़्ल-ए-तमन्ना जो बे-समर
ये जा-ए-सब्र थी कि दुआ में नहीं असर
लेकिन यहां तो बनके मुक़द्दर बिगड़ गया
फल फूल ला के बाग़-ए-तमन्ना उजड़ गया
सरज़द हुए थे मुझ से ख़ुदा जाने क्या गुनाह
मंजधार में जो यूं मिरी कश्ती हुई तबाह
आती नज़र नहीं कोई अम्न-ओ-अमां की राह
अब यां से कूच हो तो अदम में मिले पनाह
तक़्सीर मेरी ख़ालिक़-ए-आलम बहल करे
आसान मुझ ग़रीब की मुश्किल अजल करे
सुन कर ज़बां से मां की ये फ़रियाद-ए-दर्द-ख़ेज़
उस ख़स्ता-जां के दिल पे चली ग़म की तेग़-ए-तेज़
आलम ये था क़रीब कि आंखें हों अश्क-रेज़
लेकिन हज़ार ज़ब्त से रोने से की गुरेज़
सोचा यही कि जान से बेकस गुज़र न जाए
नाशाद हम को देख के मां और मर न जाए
फिर अर्ज़ की ये मादर-ए-नाशाद के हुज़ूर
मायूस क्यूं हैं आप अलम का है क्यूं वफ़ूर
सदमा ये शाक़ आलम-ए-पीरी में है ज़रूर
लेकिन न दिल से कीजिए सब्र-ओ-क़रार दूर
शायद ख़िज़ां से शक्ल अयां हो बहार की
कुछ मस्लहत इसी में हो पर्वरदिगार की
ये ज'अल ये फ़रेब ये साज़िश ये शोर-ओ-शर
होना जो है सब उसके बहाने हैं सर-ब-सर
अस्बाब-ए-ज़ाहिरी में न इन पर करो नज़र
क्या जाने क्या है पर्दा-ए-क़ुदरत में जल्वा-गर
ख़ास उसकी मस्लहत कोई पहचानता नहीं
मंज़ूर क्या उसे है कोई जानता नहीं
राहत हो या कि रंज ख़ुशी हो कि इंतिशार
वाजिब हर एक रंग में है शुक्र-ए-किर्दगार
तुम ही नहीं हो कुश्ता-ए-नैरंग-ए-रोज़गार
मातम-कदे में दहर के लाखों हैं सोगवार
सख़्ती सही नहीं कि उठायी कड़ी नहीं
दुनिया में क्या किसी पे मुसीबत पड़ी नहीं
देखे हैं इससे बढ़ के ज़माने ने इंक़लाब
जिनसे कि ब-गुनाहों की उम्रें हुईं ख़राब
सोज़-ए-दरूं से क़ल्ब ओ जिगर हो गये कबाब
पीरी मिटी किसी की किसी का मिटा शबाब
कुछ बन नहीं पड़ा जो नसीबे बिगड़ गये
वो बिजलियां गिरीं कि भरे घर उजड़ गये
मां बाप मुंह ही देखते थे जिनका हर घड़ी
क़ाएम थीं जिनके दम से उमीदें बड़ी बड़ी
दामन पे जिनके गर्द भी उड़ कर नहीं पड़ी
मारी न जिनको ख़्वाब में भी फूल की छड़ी
महरूम जब वो गुल हुए रंग-ए-हयात से
उनको जला के ख़ाक किया अपने हात से
कहते थे लोग देख के मां बाप का मलाल
इन बे-कसों की जान का बचना है अब मुहाल
है किब्रिया की शान गुज़रते ही माह-ओ-साल
ख़ुद दिल से दर्द-ए-हिज्र का मिटता गया ख़याल
हां कुछ दिनों तो नौहा-ओ-मातम हुआ किया
आख़िर को रोके बैठ रहे और क्या किया
पड़ता है जिस ग़रीब पे रंज-ओ-मेहन का बार
करता है उसको सब्र अता आप किर्दगार
मायूस हो के होते हैं इंसां गुनाहगार
ये जानते नहीं वो है दाना-ए-रोज़गार
इंसान उसकी राह में साबित-क़दम रहे
गर्दन वही है अम्र-ए-रज़ा में जो ख़म रहे
और आपको तो कुछ भी नहीं रंज का मक़ाम
बाद-ए-सफ़र वतन में हम आएंगे शाद-काम
होते हैं बात करने में चौदह बरस तमाम
क़ाएम उमीद ही से है दुनिया है जिसका नाम
और यूं कहीं भी रंज-ओ-बला से मफ़र नहीं
क्या होगा दो घड़ी में किसी को ख़बर नहीं
अक्सर रियाज़ करते हैं फूलों पे बाग़बां
है दिन की धूप रात की शबनम उन्हें गिरां
लेकिन जो रंग बाग़ बदलता है ना-गहां
वो गुल हज़ार पर्दों में जाते हैं राएगां
रखते हैं जो अज़ीज़ उन्हें अपनी जां की तरह
मिलते हैं दस्त-ए-यास वो बर्ग-ए-ख़िज़ां की तरह
लेकिन जो फूल खिलते हैं सहरा में बे-शुमार
मौक़ूफ़ कुछ रियाज़ पे उनकी नहीं बहार
देखो ये क़ुदरत-ए-चमन-आरा-ए-रोज़गार
वो अब्र-ओ-बाद ओ बर्फ़ में रहते हैं बरक़रार
होता है उन पे फ़ज़्ल जो रब्ब-ए-करीम का
मौज-ए-सुमूम बनती है झोंका नसीम का
अपनी निगाह है करम-ए-कारसाज़ पर
सहरा चमन बनेगा वो है मेहरबां अगर
जंगल हो या पहाड़ सफ़र हो कि हो हज़र
रहता नहीं वो हाल से बंदे के बे-ख़बर
उसका करम शरीक अगर है तो ग़म नहीं
दामान-ए-दश्त दामन-ए-मादर से कम नहीं