राम की कृपालुता-4 
( छंद संख्या 7,8)
(7) 
 
अपराध अगाध भएँ जनतें , अपने उर आनत नाहिन जू। 
गनिका, गज, गीध, अजामिलके गनि पातकपुंज सिराहिं न जू।। 
लिएँ बारक नामु सुधामु दियो, जेहिं धाम महामुनि जाहिं न जू। 
तुलसी! भजु दीनदयालजि रे! रघुनाथ अनाथहि दाहिन जू।7।
(8) 
प्रभु सत्य करी प्रहलादगिरा, प्रगटे नरकेहरि खंभ महाँ। 
झषराज ग्रस्यो गजराजु, कृपा ततकाल बिलंबु कियो न तहाँ। 
सुर साखि दै राखी है पांडुबधू पट लूटत, कोटिक भूप जहाँ।
 तुलसी! भजु सोच-बिमोचनको, जनको पनु  राम न राख्यो कहाँ।8।