भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राम मिलण रो घणो उमावो, नित उठ जोऊं बाटड़ियाँ / मीराबाई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग प्रभाती

राम मिलण रो घणो उमावो, नित उठ जोऊं बाटड़ियाँ।
दरस बिना मोहि कछु न सुहावै, जक न पड़त है आँखड़ियाँ॥

तड़फत तड़फत बहु दिन बीते, पड़ी बिरह की फांसड़ियाँ।
अब तो बेग दया कर प्यारा, मैं छूं थारी दासड़ियाँ॥

नैण दुखी दरसणकूं तरसैं, नाभि न बैठें सांसड़ियाँ।
रात-दिवस हिय आरत मेरो, कब हरि राखै पासड़ियाँ॥

लगी लगन छूटणकी नाहीं, अब क्यूं कीजै आँटड़ियाँ।
मीरा के प्रभु कब र मिलोगे, पूरो मनकी आसड़ियाँ॥

शब्दार्थ :- घणी =घनी, बहुत अधिक। उमाव = उमंग। बाटड़ियाँ = बाट, राह। जक =चैन। फाँसड़ियाँ = फांसी। साँसड़ियाँ =सांसें। पासड़ियाँ =समीप। आँटड़ियाँ =आपत्ति, बाधा। आसड़ियाँ = आशाएँ।