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राम / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

रक्त-रंजित था समय-प्रवाह;
चमक थी रही काल-करवाल।
कँप रहा था त्रिलोक अवलोक,
कालिका-नर्तन परम कराल।
दनुजता का दुरंत उत्साह,
लोक का करता था संहार।
सह न सकता था प्राणिसमूह
पाशविकता का प्रबल प्रहार।
विधूनित था विधि-बध्द विधान;
दहल था रहा समस्त दिगंत।
विकंपित था वृंदारक-वृद;
हो रहा था मानवता-अंत।
तिमिर-पूरित हो-होकर व्योम,
कर रहा था बहुधा उत्पात।
न सकता था पाहन-उर देख,
धरातल का वर्ध्दित उत्पात।
किसी अविचिंत्य शक्ति की ओर,
लगे थे जन आशा के नेत्र।
हो गया इसी समय सुविकास;
हुआ उद्बुध्द शान्ति का क्षेत्र।
सामने आया भव अनुकूल,
एक विभु वैभव लोक-ललाम।
कांत-वपु, जानु-विलंबित-बाहु,
कमल-दल-नयन, नीर-धार-श्याम।
वह पुरुष था मानवता-मूर्ति,
सत्य-संकल्प, सिध्दि-आधार।
प्रेम-अवलंब, भक्ति-सर्वस्व,
नीति-निधि, मर्यादा-अवतार।
वदन पर थी उसके वह ज्योति,
हुआ जिससे जगती-तम दूर।
देखकर मानस-ओज महान,
हो गया कदाचार-मद चूर।
बुध्दि से बँधा सिंधु में सेतु;
खुला कौशल से सुर-पुर द्वार।
कर परस कर पवि बना प्रसून,
हुआ पग से पाहन-निस्तार।
भरी थी उसमें स्वर्ग-विभूति,
रहा वह सकल-भुवन-अभिराम।
आर्य-कुल-गौरव, गेह-प्रदीप,
दिव्य-गुण-धाम, नाम था राम।