भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रावण ओर मंदोदरी / तुलसीदास/ पृष्ठ 4

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रावण ओर मंदोदरी

( छंद संख्या 23 से 24 )

(23)

पवनको पूतु देख्यो दूतु बीर बाँकुरो, जो
 बंक गढ़ लंक-सो ढकाँ ढकेलि ढाहिगो।

बालि बलसालिको सो काल्हि दापु दलि कोपि,
रोप्यो पाउ चपरि, चमूको चाउ चाहिगो।।

सोई रघुनाथु कपि साथ पाथनाथु बाँधि,
 आयो आयो नाथ! भागे तें खिरिरि खेह खाहिगो।

‘तुलसी’ गरबु तजि मिलिबेकेा साजु सजि,
देहि सिय, न तौ पिय! पाइमाल जाइगो।23।

(24)

उदधि अपार उतरत नहिं लागी बार,
केसरीकुमारू सो अदंड-कैसो डाँड़िगो।

बाटिका उजारि , अच्छु , रच्छकनि मारि भट,
भारी भारी राउरेके चाउर-से काँडिगो।।

 ‘तुलसी’ तिहारें बिद्यमान जुबराज आजु,
कोपि पाउ रोपि, सब छूछे कै कै छाँडिगो।

कहेकी न लाज , पिय ! आजहूँ न आज बाज,
 सहित समाज गढु राँड-कैसो भाँड़िगो।24।