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रावण ओर मंदोदरी / तुलसीदास / पृष्ठ 1

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रावण ओर मंदोदरी

( छंद संख्या 17 से 18 )

(17)

कनकगिरिसृंग चढ़ि देखि मर्कटकटकु,
 बदत मंदोदरी परम भीता।

सहसभुज-मत्तगजराज-रनकेसरी,
 परसुधर गर्बु जेहि देखि बीता।।

दास तुलसी समरसूर कोसलधनी,
 ख्याल हीं बालि बलसालि जीता।

रे कंत! त्ृान गहि ‘सरन श्रीरामु’ कहि,
अजहूँ एहि भाँतिल ै सौंपु सीता।17।

(18)

रे नीचु! मरीचु बिचलाइ, हति ताड़का,
भंजि सिवचापु सुखु सबहि दीन्हों ।

सहज दसचारि खल सहित खर-दूषनहिं,
 पैठै जमधाम, तैं तउ न चीन्ह्यों।।

मैं जो कहौं, कंत! स्ुनु मंतु भगवंतसो,
 बिमुख ह्वै बालि फलु कौन लीन्ह्यो।

बीस भुज, दस सीस खीस गए तबहिं जब,
ईसके ईससों बैरू कीन्ह्यो।18।