भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रावण / दीनदयाल शर्मा
Kavita Kosh से
सालो-साल दशहरा आता
पुतला झट बन जाए।
बँधा हुआ रस्सी से रावण
खड़ा-खड़ा मुस्काए।
चाहे हो तो करे ख़ात्मा,
राम कहाँ से आए।
रूप राम का धरकर कोई,
अग्निबाण चलाए।
धू-धू करके राख हो गया,
नकली रावण हाय!
मिलकर खुशियाँ बाँटें सारे,
नाचें और नचाएँ।
अपने भीतर नहीं झाँकते,
खुद को राम कहाए।
सबके मन में बैठा रावण,
इसको कौन मिटाए।