भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राष्ट्रों में हो प्रेम परस्पर / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(राग शिवरञ्जनी-ताल कहरवा)

 
राष्ट्रोंमें हो प्रेम परस्पर, रहे न रञ्चक वैर-विरोध।
सभी एक दूसरेका हित चाहें, करें परस्पर हितकर बोध॥
मिटें दुरित-दुर्भिक्ष, देश हो अन्न-शाक-फलसे भरपूर।
अशन-वसन, गृह-भूमि सभीके हों, सबके अभाव हों दूर॥
भोग-लालसा-रहित शुद्ध जीवनमें सुखद रहे संतोष।
रहें प्राप्त सब वस्तु सभीको जीवन-‌उपयोगी निर्दोष॥
तनसे-मनसे सभी स्वस्थ हों, हों पवित्र आहार-विहार।
करने लगें वकील-चिकित्सक अन्य-लाभदायक व्यापार॥
रहे न भय-‌आतंक कहीं भी, छाये निर्भयता आनन्द।
सभी लोग सुख-शान्ति-लाभ कर, करें पवित्रकर्म स्वच्छन्द॥
बंद सभी हों पशु-हत्यालय, मिटे क्रूर हिंसाका भाव।
जीवमात्रको निर्भय सुखी बनानेका हो सबका भाव॥
दुग्धवती गौ‌एँ असंख्य हों, मिले दुग्ध-घृत-दही अपार।
सबल बैल अगणित धरतीमें करें प्रचुर कृषि का विस्तार॥
सत्यप्रिय हों सभी लोग, पालें वर्णाश्रमका आचार।
यज्ञ धूमसे छाये नभमें हो वेदध्वनिका गुञ्जार॥
पर सबके हों एकमात्र शुचि परम लक्ष्य परतम भगवान।
कर्म-विचार-वस्तु सब अर्पित कर दें इसी हेतु मतिमान॥
जीवमात्रमें देखें प्रभुको, करें सभीका हित सत्कार।
विनय-विनम्र स्वकर्मोंद्वारा पूजें सब प्रभुको अविकार॥
भारतके अध्यात्म तेजका, प्रभो! पुनः हो पूर्ण विकास।
तप्त विश्वमें फैला दे वह परम सुशीतल सुखद प्रकाश॥
करें स्वकर्म सभी तन-मनसे प्रभु पूजा-हित अभिनय-रूप।
ममता-राग-रहित हो बरतें प्रभुकी आज्ञाके अनुरूप॥
मंगलमय, हे परम दयामय, सर्वातीत, सर्वमय राम!
पूर्ण करो भारत-मानवकी यह विनीत प्रार्थना ललाम॥