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राष्ट्र-देव-चरणों में / कविता भट्ट
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लौहस्तम्भ-से खड़े वे मनुज शिविर में
सहते हैं हाड़ कँपाती शीत- शिशिर में।
प्रभात, संध्या, घनघोर रात्रि- तिमिर में
और चिलचिलाती चुभती धूप दोपहर में।
मनुज हैं; यंत्र नहीं- इनमें भी हैं संवेदनाएँ,
इन्हें भी तड़पाती हैं; निज गहन वेदनाएँ।
नित क्रूर काल; किन्तु न ये विचलित होते,
न भय खाते, अश्रु बहाते और ना ही रोते।
निज रक्त-संबंध बलि चढ़ाते नित वीर जवान
राष्ट्र-देव-चरणों में; गौरवान्वित हो बने महान।
मातृभूमि के उर विजय माल सँजोने वालों को,
कोटिशः नमन 'कविता' का- इन मतवालों को।