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राष्ट्र वंदना / गौरव शुक्ल

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" हे सूत्रधार जग के! हे सृष्टि के नियंता!
अविनाश! भक्तजन के दुख पाप ताप हंता!
सागर कृपा दया के लोचन इधर फिराओ,
इस देश की समस्या कि भित्तियाँ गिराओ।

आदर्श राष्ट्र भारत इस विश्व में कहाये,
वरदान दो कि इसका यश दिगदिगंत गाये।
अब शीघ्र ही मिटा सब, अज्ञान देवता दे।
सद्ज्ञान देवता दे; विज्ञान देवता दे।

प्रभु ऋद्धि सिद्धियों के उत्तुंगतम शिखर दे,
तेजस्विता सभी में दिनमान तुल्य भर दे।
कर दे प्रशस्त संकुल पथ देश की प्रगति का,
हम गर्व कर सकें निज प्राचीन सुसंस्कृति का।

मानव विकास के हित नव द्वार खोल दें हम;
वैषम्य द्वेष ईर्ष्या के सिंधु सोख लें हम।
सामर्थ्य का स्वयं की अनुमान देवता दे।
दुर्जेय शक्तियों की पहचान देवता दे।

आस्था अटूट रक्खें, प्रभु देशप्रेम में हम,
इसके निमित्त प्राणों का दान भी लगे कम।
मन कर्म से, वचन से इस देश को सजायें,
सम्पूर्ण विषमताएँ हम आज भूल जायें।
 
बन्धुत्व की प्रथा को उपयुक्त मोड़ दें हम,
सेवा-परंपरा में नव पृष्ठ जोड़ दें हम।
हमको अजेयता का वरदान देवता दे।
कुछ मान देवता दे, कुछ शान देवता दे।

सेवा सहिष्णुता के; करुणा उदारता के;
तप त्याग वीरता के; सौहार्द शीलता के;
आशीष दे अनूठे प्रतिमान हम बनायें।
सबसे अलग जगत में पहचान हम बनायें।

हो भारती हमारी गुंजित धरा गगन में,
हो शक्ति का प्रयोजन अन्याय के दमन में।
सारी विपत्तियों का अवसान देवता दे।
जो दे बढ़ा मनोबल, वह गान देवता दे।

छीनें अभीष्ट अपना, हम काल के करों से,
बेधें प्रमाद जग का हम ज्ञान के शरों से।
कपटी विरोधियों का अस्तित्व मेट दें हम,
धर्मार्थ मृत्यु को भी सानंद भेंट लें हम।

उद्धत चरण हमारे सिर रौंद दें अनय का,
फिर पांचजन्य गूँजे मनुजत्व की विजय का।
भर सुप्त चेतना में नव प्राण देवता दे।
जिस भाँति हो सभी का कल्याण देवता दे।