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रास्ता बंद नहीं होता / कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह
Kavita Kosh से
रास्ता कहीं बंद होता तो इरादा मज़बूत हो।
पहले क़दम उठाते हैं, रास्ता फिर पीछे लग जाता है
मंज़िल जो नई हो, ऐसा कभी नहीं होता कि जहाँ
जाने का रास्ता पहले ही से बिछा हो। मंज़िलों
तक पहुँचने वाले क़दम अपना रास्ता ख़ुद निकाल
लेते हैं। उस मंज़िल का आख़िर क्या होना जिससे
हमक़लाम होने को दिलो-दिमाग़ से बेचैन कोई
क़दम न हो। और क़दम अक्सर ग़लत उठ जाते हैं
जब इरादा साफ़ नहीं होता। अन्दर से ख़ुद विभाजित
हुआ रहा अपनी ज़मीन और अपना आसमान भी
विभाजित कर लेता है। क्रांतियाँ मंज़िलों से नहीं,
अपनी ओर बढ़े आ रहे क़दमों से धोखा खा जाती हैं-
इसके कब्ल कि उसका सूरज धरती पर उतर कर कण-कण से
सम्वाद करे, सूर्यग्रहण लग जाता है।