रास्ते का पत्थर / सुदर्शन रत्नाकर
पत्थर हूँ मैं रास्ते का
पड़ा हुआ बेजान
कोई देखता नहीं
लग जाए ठोकर
कोस देते हैं नादान।
कोई मेरी पीड़ा को समझता नहीं
कोई मुझे वहाँ से हटाता नहीं
जाने कब से पड़ा हूँ
गर्मी की कितनी उष्णता को सहता हूँ
शीतकाल की ठंडी हवाओं ने
मेरे सीने को चीरा है
वर्षा की रिमझिम बूँदों ने
मरहम बन मुझे सहलाया भी है
मैं प्रकृति के प्रकोपों से नहीं डरा
नियति यही है मेरी, सोच
सदियों मैं रहा पड़ा
और रंग से बेरंग होता गया।
फिर एक दिन वह आया,
पूरी शक्ति से, मुझे उठाया
ले गया वह अपनी कार्यशाला
हथौड़े, छैने से मुझे संवारा
दे दिया उसने मुझे देवता का रूप
किया गया मंदिर में स्थापित
हुआ ईश्वर का स्वरूप
देवता बन आसन पर विराजमान हूँ
भक्त आते हैं, शीश झुकाते हैं
मुरादें पूरी करने का वरदान माँगते हैं
पर मैं भूलूँगा नहीं
जब मैं रास्ते का पत्थर था
कोई मुझे पूछता नहीं था।