भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रास्ते भर ये सोचता हूँ मैं / सुरेश कुमार
Kavita Kosh से
रास्ते भर ये सोचता हूँ मैं
घर से क्या सोच कर चला हूँ मैं
कुछ भी दिखता नहीं सिवा तेरे
जाने किस मोड़ पर रुका हूँ मैं
अब मुझे आँधियों का डर कैसा
सर से पा तक बिखर चुका हूँ मैं
तू मुझे मत पुकार तनहाई
तू अभी जा कि सो रहा हूँ मैं
हो गए सब इधर-उधर लेकिन
जिस जगह था, वहीं खड़ा हूँ मैं