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राहगीर की जिरह / अंकिता जैन
Kavita Kosh से
हर रोज़ गुज़रती हूँ उस सड़क से
संग बांधे अपने
प्रेम, दया, करुणा और ममत्व की गठरी
उस सड़क से
जहाँ किनारे खुदे हैं ढेर सारे गड्ढे
दबे जिनमें कुछ बीज
घृणा, नफ़रत और टीस के
बीते वक़्त में लगी चोट के
किसी उलझन के
क्रोध के
बीज जो फूट पड़ते हैं
मेरे कदमों के साथ
कदम-दर-कदम
और रोक लेते हैं मेरी राह को
मेरे सफ़र को
जो पाना चाहता है मंज़िल
करना चाहता है प्रेम
लुटाना चाहता है सर्वश्व
लेकिन सफ़र के अंत तक
दब चुके होते हैं उन गड्ढों में
करुणा, प्रेम, ममत्व और दया
और साथ पहुँचते हैं
वे जो कपड़ो में लिपट जाते हैं
किसी थेथर कांटे की तरह
बिन बताए,
बस करने को जिरह
और
देने को विरह।