भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राही / जितेंद्र मोहन पंत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब मैं
पीछे मुड़कर देखता हूं
न जाने क्यों ?
देखता ही रह जाता हूं।
अतीत की देह पर
विछोह के दहकते हुए शोलों को
थककर चूर होकर
थम से बैठ जाता हूं।
होश में आकर दोनों हाथों से
आंखें अपनी पोंछता हूं
नजरें फेरकर डग भरते हुए
खंडहर मंजिल में झांकता हूं।