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राहे-वफ़ा में जब भी चले, इस क़दर चले / समीर परिमल
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राहे-वफ़ा में जब भी चले, इस क़दर चले
दुनिया के हर रिवाज से हम बेख़बर चले
मुमकिन कहाँ कि साथ कोई मोतबर चले
बस ज़िंदगी की राह में अपना हुनर चले
सहरा में अश्क़ कौन बहाए मेरे लिए
पैरों के आबलों से ही अपनी गुज़र चले
चल हम भी ढूंढ लें कोई छोटा सा आशियाँ
अब रात ढल चुकी है, सितारे भी घर चले
अपना ख़याल है न ज़माने से वास्ता
तेरा ही ज़िक्र दिलरुबा शामो-सहर चले
पड़ने लगीं हैं आज कल रिश्तों में सलवटें
'परिमल' का देखते हैं कहाँ तक सफ़र चले