राहों में भी रिश्ते / प्रमोद तिवारी
राहों में भी
रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी
मंज़िल तक जाते हैं
आओ तुमको
इक गीत सुनाते हैं
रिश्तों की खुशबू में
नहलाते हैं
मेरे घर के आगे
इक खिड़की थी
खिड़की से
झांका करती लड़की थी
इक रोज़ यूं ही
मैंने टॉफी खाई
फिर जीभ निकाली
उसको दिखलाई
गुस्से मेंवह
छज्जे पर आन खड़ी
आंखों ही आंखों
मुझसे बहुत लड़ी
उसने भी फिर
टॉफी मंगवाई थी
आधी जूठी करके
भिजवाई थी
वो जूठी टॉफी
अब भी मुंह में है
हो गई शुगर
हम फिर भी खाते हैं-
दिल्ली की बस थी
मेरे बाजू़ में
इक गोरी-गोरी
बिल्ली बैठी थी
बिल्ली के उड़ते
रेशम बालों से
मेरे दिल की
चुहिया कुछ ऐंठी थी
चुहिया ने
उस बिल्ली को
काट लिया
बस फिर क्या था
बिल्ली का ठाट हुआ
वो बिल्ली अब भी
मेरे बाजू है
उसके बाजू में
मेरा राजू है
अब बिल्ली चुहिया राजू
सब मिलकर
मुझको ही
मेरा गीत सुनाते हैं-
इक बूढ़ा
रोज़ गली में आता था
जाने किस भाषा में
वह गाता था
लेकिन उसका स्वर
मेरे कानों में
अब उठो लाल
कह कर
खो जाता था
मैं निपट अकेला
खाता सोता था
नौ बजे क्लास का
टाइम होता था
इक रोज़ मिस नहीं
मेरी क्लास हुई
मैं टॉप कर गया
पूरी आस हुई
वह बूढ़ा
जाने किस नगरी में हो
उसके स्वर अब भी
मुझे जगाते हैं
इक दोस्त मेरा
सीमा पर रहता था
चिट्ठी में जाने क्या-क्या
कहता था
उर्दू आती थी
नहीं मुझे
लेकिन
उसको जवाब
उर्दू में देता था
इक रोज
मौलवी नहीं रहे, भाई
अगले दिन ही
उसकी चिट्ठी आई
ख़त का जवाब अब
किससे लिखवाता
रो-रो मर जाता
हम उर्दू सीख रहे हैं
नेट युग में
अब खुद जवाब
लिखते हैं
गाते हैं
इन राहों वाले
मीठे रिश्तों से
हम युगों-युगों से
बंधे नहीं होते
तो जन्मों वाले
रिश्तों के पर्वत
अपने कंधों पर
सधे नहीं होते
बाबा की धुन ने
समय बताया है
उर्दू के ख़त ने
साथ निभाया है
बिल्ली ने
चुहिया को
दुलराया है
जूठी टॉफी ने
प्यार सिखाया है
हम ऐसे रिश्तों की
फेरी लेकर
गलियों-गलियों
आवाज लगाते हैं