राह—ए—वफ़ा में नाम कमाने का वक़्त है / साग़र पालमपुरी
राह—ए—वफ़ा में नाम कमाने का वक़्त है
अपने लहू में आप नहाने का वक़्त है
तक़्दीस—ओ—एहतराम—ए—महब्बत के वास्ते
अहल—ए—जफ़ा के नाज़ उठाने का वक़्त है
जिनसे थी रहबरी की तवक़्क़ो हमें कभी
उन रहबरों को राह दिखाने का वक़्त है
ग़मगीन हो न जायें कहीं वो भी इसलिये
अपनों से दिल के ज़ख्म छुपाने का वक़्त है
अपनी तलाश के लिए सहरा—ए—फ़िक्र में
शेर—ओ—सुख़न के फूल खिलाने का
साये तवील हो गये फिर शाम ढल चली
अब शमअ—ए—इन्तज़ार जलाने का वक़्त है
ऐ बुलबुलो ! सुनो तो ख़िज़ाँ की पुकार को
गुलशन से अब बहार के जाने का वक़्त है
टकरा के जिन से चूर हुए आईने कई
उन पत्थरों को फूल बनाने का वक़्त है
बसते हैं जिन की गोद में पैकर ख़ुलूस के
उन वादियों में जा के न आने का वक़्त है
जागो ! सहर क़रीब है मदहोश मयकशो!
सँभलो! कि अब तो होश में आने का वक़्त है
‘साग़र’! हविस के सहरा की जलती फ़ज़ाओं में
सब्र—ओ—सुकूँ के शह्र बसाने का वक़्त है
तक़्दीस—ओ—एहतराम—ए—महब्बत=प्रेम की पवित्रता और सम्मान; अहल—ए—जफ़ा=अत्याचारी