राह-ए-ख़ुदा परस्ती अव्वल है ख़ुद-परस्ती
हस्ती में नीस्ती है और नीस्ती में हस्ती
ऐ साक़ी दिल-आगाह कर दर्द-ए-सर सीं फ़ारिग़
मख़मूर हूँ अता कर जाम-ए-अज़ल की मस्ती
आबादी-ए-दो आलम लगती है उस को वीराँ
आशिक़ कूँ हुए मयस्सर जिस वक्त दिल की बस्ती
उम्मीद है कि मोहन दीदार मुज कूँ देगा
ग़म हिज्र का करेगा कब लग दराज़-दस्ती
जलमें में शम्अ बोली मुज कूँ ‘सिराज’ यक शब
करती है हर बुलंदी आख़िर कूँ अज़्म-ए-परस्ती