राह ओ मंज़िल / संकल्प शर्मा
गुलशन ऐ ख़्वाब के गुलदान में,
मैं कुछ दिन और खिलना चाहता हूँ।
मेरी हमदम अभी ना मिलना मुझे,
भले मैं तुझसे मिलना चाहता हूँ।
सुना है मंज़िलों को जीत लेने की ख़्वाहिश में,
राही हर एक मुश्किल तोड़ देता है।
राहें दुश्वार चाहे जितनी हों,
रुख उनका मंज़िलों पे मोड़ देता है।
और मजिल पे जाके राही का,
साथ राहों से छूट जाता है।
एक रिश्ता जो है मतलब के लिए,
पूरा होने पे टूट जाता है।
मेरी मज़िल है तू फ़कत तू ही,
और मैं ऐसे तुझको पा रहा हूँ।
नज़्म ओ अश_आर मेरे राहें मेरी,
मैं इनपे चलके तुझ तक आ रहा हूँ।
मेरी मंज़िल क़रीब है लेकिन,
मैं राहों में ही रहना चाहता हूँ।
बहुत कुछ लिख चुका हूँ तेरे लिए,
अभी कुछ और लिखना चाहता हूँ।
मेरी हमदम अभी ना मिलना मुझे,
भले मैं तुझसे मिलना चाहता हूँ...