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राह का अब हो चुका पत्थर हूँ मैं / कैलाश झा 'किंकर'

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राह का अब हो चुका पत्थर हूँ मैं।
इसलिए तो खा रहा ठोकर हूँ मैं॥

आपके क़दमों की आहट मिल गयीं
डर से बिल्कुल काँपता थर-थर हूँ मैं।

अब ग़ज़लकारों की राहें हों हसीं
पीढियों का बन चुका रहबर हूँ मैं।

आपकी यादें बनीं संजीवनी
हाशिए का खुशनुमा शायर हूँ मैं।

आ के घर पर बात कर लूँगा कभी
इस समय तो घर से ही बाहर हूँ मैं।

अनवरत चलता रहा चलता रहा
प्यास का मारा हुआ सागर हूँ मैं।