भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
राह को अपना बनाना रह गया / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
राह को अपना बनाना रह गया
ठोकरें हर रोज़ खाना रह गया
मंजिलें आकाश के तारे बनीं
दूर रह कर टिमटिमाना रह गया
जो तुम्हारे दिल मे था कह ही चुके
और क्या सुनना सुनाना रह गया
चल पड़े बन मस्त मौला राह पर
देखता हम को जमाना रह गया
हर जगह कब्ज़ा अमीरों ने किया
अब न मुफ़लिस का ठिकाना रह गया
हैं बहुत सीली लकड़ियाँ दर्द की
दे धुँआ दिल को जलाना रह गया
रेगजारों में चला जाता नहीं
जख़्म पाँवों के छिपाना रह गया