राह चलना / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
क्या एक मन में संकेत लिये-लिये
अकेले-अकेले शहर-शहर राह-दर-राह
बहुत चला मैं बहुत देखा सब ठीक-ठाक
चलती हैं ट्रामें, बसें, रात को चुपचाप सड़क छोड़कर
अपनी नींद की दुनिया में सब खो जाती हैं।
रात भर स्ट्रीटलाइट अपना काम करते हुए जलती है
आकाश के नीचे चुपचाप नींद की कोशिश में
पड़े रहती हैं ईंटें, घर, साइनबोर्ड, झरोखे, छत-दरवाजे़
अकेले-अकेले चलते हुए
अपने भीतर महसूस करता हूँ इनकी गहरी चुप्पी
रात गये देखता हूँ तारे खण्डहर मीनार की चोटी
सब निर्जनता से घिर गये हैं,
लगता है किसी दिन इससे भी अधिक ये चुप दिखेंगे।
और कभी क्या देखा है कि कलकत्ते के ऊपर हज़ारों तारे उगे हुए हैं?
और कलकत्ता किसी स्मारक की तरह दिखाई दे रहा है
आँख झुक जाती हैं गुमसुम चुरुट जलता रहता है
हवा और धूल-मिट्टी से आँखें मींचे एक ओर खिसक जाता हूँ
पेड़ों से टूट पड़े ढ़ेरों बादामी और पीले पत्ते
अकेले-अकेले बेबीलोन की रातों में ऐसे ही फिरता रहा हूँ
क्यों? मैं नहीं जानता हज़ारों व्यस्त सालों के बाद भी।