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राह तकती ही रह गयीं आंखें / ईश्वरदत्त अंजुम

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राह तकती ही रह गयीं आंखें
सदमा फुरकत का सह गयीं आंखें

खुद ही बरपा किया था सैले-अश्क़
और खुद उस में बह गयीं आंखें

कर न पाई मिरी ज़बां जो बात
उस को चुपके से कह गयीं आंखें

कोई भी तो न कुछ समझ पाया
सरे-महफ़िल जो कह गयीं आंखें

उस ने मानी न एक भी उन की
अर्ज़ करती ही रह गयीं आंखें

उम्र भर राह देखते रहना
जाते जाते ये कह गयीं आंखें

तुम हो क्यों अब उदास ऐ 'अंजुम'
जो भी कहना था कह गयीं आंखें।