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राह पे उम्मीद की चलता हुआ इंसान हूँ / रचना उनियाल
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राह पे उम्मीद की चलता हुआ इंसान हूँ,
मुफ़लिसी से लड़ रहा ये कर रहा ऐलान हूँ।
बेरुख़ी झेले ग़रीबी दो निवाले प्यार के,
देख इंसा बेरुख़ी को दिल से मैं हैरान हूँ।
चोट दिल पे ही लगेगी गर जुबाँ तलवार हो,
तीर बातों के सहूँ क्यों, अपनी खुद पहचान हूँ।
रात को दिल बारिशों की भीगती चादर तले,
इश्क़ में डूबे दिलों के बाग की मैं शान हूँ।
तोहफ़ा देते कृषक हैं धान दालें अन्न का,
दिल न भूले बात को ये मैं ज़मीं पहचान हूँ।
शोर करना शोर सुनना है नहीं आदत मेरी,
अम्न का पैग़ाम बनकर अम्न का फ़रमान हूँ।
ये शजर ‘रचना’ चमन का छाँव देता ही रहे,
गाँव से भी शह्र से भी एक हिंदुस्तान हूँ।