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राह में चाँद जिस रोज़ चलता मिला / गौतम राजरिशी
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राह में चाँद जिस रोज़ चलता मिला
हाँ, उसी रोज़ से दिल ये जलता मिला
देखना छुप के जो देख इक दिन लिया
फिर वो जब भी मिला तो सँभलता मिला
जाने कैसी तपिश है तेरे जिस्म में
जो भी नज़दीक आया पिघलता मिला
रूठ कर तुम गये छोड़ जब से मुझे
शह्र का कोना-कोना उबलता मिला
किस अदा से ये क़ातिल ने ख़न्जर लिया
क़त्ल होने को दिल खुद मचलता मिला
चोट मुझको लगी थी मगर जाने क्यों
रात भर करवटें वो बदलता मिला
टूटती बारिशें उस पे यादें तेरी
भीगता दर्द-सा कुछ फिसलता मिला
(अभिनव प्रयास, जुलाई-सितम्बर 2011)