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राह में मज़दूर / अशोक शाह

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किसने देखा त्रेता में राम को
राम-पथ पर नंगे पाँव
वन-वन भटकते हुए
?
कलियुग में हजारों मील लम्बी यात्रा पर
वे निकले हैं ढूँढ़ते पहुँचने घर
पर उन्हें दिखा नहीं राम-पथ

लगी उन्हें भी कण्ठ सुखाती प्यास
पर गंगा आयी नहीं लेकर सौगात
वे मारे गये रेल की पटरियों पर बेमौत
पर विद्या किसी विश्वामित्र की
खोल न पायी अपनी ज़बान

उनकी गर्भवती स्त्रियों ने
राह चलते दे दिया बच्चों को जन्म
पर ढूँढ न सकीं वाल्मीकि का आश्रम
पेट से निकले बच्चों को सीने से लगाये
वे चलतीं रहीं लागातार
करुण क्रन्दन करता रहा समय नवजातों के मुख से
दिखी नहीं कोई कामधेनु
जो छोड़ देती दूध की दो-चार धार

दम तोड़ा जिन्होंने रास्तों में
उन्हें घर मिला न क़ब्रस्तान
कहाँ गया वह केवट-मल्लाह
जिसने खोल दिया था अपनी राजधानी का द्वार
पर मिले ज़रूर उन्हें पुलिस के चौकीदार
पटरियों पर चलने का जिनने उगाह लिया मसूल

जो बच गए चलते रहे
पैरों के छाले- फफोले हो गए
टखने उतर गए
स्वर्ग से उतरा नहीं
तैंतीस कोटि में से एक देवता
ज़ख्मों पर जो लगा देता
दिव्य अपना मरहम उधार

नींद और थकान से झपकती रहीं आँखें
पर पैर चलते रहे
नहीं मिली पंचवटी
मिला न चित्रकोट

वे चलते रहे पर उन्हें लौटाने
भरत की शक्ल में आया नहीं
कोई उद्योगपति, व्यापारी या कारोबारी
जो हानि-लाभ का करता न हिसाब

जब सूख गये आँसू
ख़त्म हो गया स्वेद
और अँधेरी धरती पर बचा था न स्नेह
तब शबरी जनता ने यदा-कदा खिलाया
उन्हें भरपेट

फिर मज़दूर चलते रहे
खोजते मज़दूर-पथ
पीड़ा की अतल गहराइयों से
चल जाती बस कोई ट्रेन

विकास पथ पर इक्कसवीं सदी के
किसी देश में ऐसे भी चले थे
कोटि-कोटि मज़दूर
समय गवाह एकमात्र जिनका
क्या लिख पायेगा उनकी त्रासद-कथा
निर्लज्ज दरबारी इतिहास

क्या करेगा देश यह मंगल पहुँच
जब आदमी होने का दे न सका सबूत
अंग-अंग नोंच खाया धरा-बदन
अर्जित करने कौन-सी दौलत अकूत