रिक्तता का बोध / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
चेहरे को
दोनों हाथों की उँगलियों से कसे हुए,
माथे को
घुटनों के बीच छिपाने का प्रयास:
इसे कायरपन
न समझो।
अनुभव कर चुकी है देह
इन बोझिल बाहों को
इन उतरे कंधों को
इस घायल सीने को
इस आत्म-पीड़न को-
सहने और सुनने की सामर्थ्य
युग-धर्म की नहीं,
केवल मुझमें है।
मैंने मना लिया है:
जिसका वक्षस्थल
दड़की हुई सीमेन्टी छत की तरह-
रसा नहीं,
जिसके मन-मन्द्राचल को
जहरीले दर्द के वासुकि ने कसा नहीं,
माना
उसने मौत का मुँह भी सिया होगा,
और चाहे जो कुछ किया होगा,
मगर जिन्दगी नहीं जिया होगा
....नहीं जिया होगा।
मेरी चाह है
इस व्यथा के अंगारे को
(जिसकी लपटें मेरे चेहरे पर दिखती है)
हथेलियों की राख की पर्तों से ढँक दूँ,
और
पानी भरने के लिए
जो घड़े हाथ में हैं
उन्हें यूँ ही तट पर
रिक्त पड़ा रहने दूँ।
मैंने अच्छी तरह
जान लिया है
ये घड़े
पानी में डूबना नहीं चाहते
वह तो मैं हूँ
जिसने पानी और घड़ों का
जबरन
डूबने और डुबाने को लाचार किया है,
लेकिन
आज ये घड़े
कुछ देर यूँ ही रहेंगे
मेरी छूछी आत्मा के
प्रतीक बनेंगे।
यह नदी का पड़ोस
यह खामोशी
मुझे अच्छी लग रही है।
तट को छोड़कर
नदी काफी दूर चली गई है,
किन्तु
रेत पर लहरों के पदचिह्न अभी ताजे हैं,
पिछली रात इस तट पर
बंजारों का डेरा था शायद...
ये टूटे चूल्हे
यह ठंठी राख
यह राख पर अधपकी-
कच्ची दाल का जूठन
यह पुरानी ढोलों को उतरी हुई खालें
ये बाँस के फर्चे
धूल में बने हुए
बच्चों के किले
ये दूधमुहों के ताजमहल
ये वीरानगी के सिंगार-
बड़े मनभावन हैं।
और यह बियाबान की कब्रगाह
जिसको नदी की लहरें
सलाम बजाती हैं,
जिसकी ईंटों पर
केवल आँधी
माथा पटकती है
क्योंकि सिजदा करने वाले नहीं रहे,
फासफोरस कहो
या
अगिया बैताल
जब तब जला देता है चिराग
क्योंकि अब
चिराग जलाने वाले नहीं रहे,
ये सब
मेरे मन पर रखे पत्थरों को-
हटा रहे हैं,
बड़ा सुख दे रहे हैं।
मैंने बहुत-बहुत सोचा है
कि युगधर्म
मुझे धारण कर लेगा
कर्म मुझे उबार लेगा
किन्तु
किसी से कुछ नहीं हुआ,
यही सूनापन मेरा मददगार है,
यही मन की रिक्तता-
हमदर्द है,
ये टूटे खण्डहर
ये छूटे रिश्ते
ये गई वस्तुओं के निशान,
यह धरती
यह आसमान,
ये दिशाओं के निर्विकार-
हाथ
मेरा साथ देते हैं-साथ।