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रिक्तता ही रह गई मेरे लिए / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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कर दिया अभितप्त मेरे शोक को,
रात महकी तो तुम्हारी याद ने।
विरह-ज्वर के ताप को धधका दिया,
सुबह दहकी तो तुम्हारी याद ने।

उड़ रही देशान्तरों में बात यह-
तुम्हें मेरे प्रेम ने है डस लिया।
और बेबस जानकर तुमने मुझे,
जाल में भुज-बंधनों के कस लिया।

जब दवा के लिए मारा प्रेम का,
दर्द मन का छिपा मैं कहने लगा।
लग गया नश्तर तुम्हारे मर्म में,
खून तेरी नसों से बहने लगा।

नयन-भँवरों में न डालो बाँध कर,
क्या न उनमें सिन्धु की गहराइयाँ?
कसक कर हिलकोर उठती ज्वार की,
कामनाएँ ले रहीं अँगड़ाइयाँ?

लालसा में मैं तुम्हारे मिलन की?
स्वयं अपने-आपसे मिलता रहा।
एकता का रंग कुछ ऐसा चढ़ा,
खुले वन के फूल-सा खिलता रहा।

ले चुकी जब सुमुखि, तुम मेरा हृदय,
तो रहा क्या शेष देने के लिए?
हो गया मैं अमन दे मन तुम्हें,
रिक्तता ही रह गई मेरे लिए।