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रिक्शा / सुरेन्द्र रघुवंशी
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					चल मेरे रिक्शे
भोर की पहली किरण से पहले ही
मेरे साथ उठकर चल भूखे पेट
सच्चाई को निगलते हुए सफ़ेदपोश कोहरे को धत्ता बताकर
बर्फ़ीली ठण्ड को चिढ़ाते हुए चल
कि तू चलेगा तो शाम को अपनी झोंपड़ी में जलेगा चूल्हा
कि तू चलेगा तो ये पैर खींच सकेंगे तुझे
अपनी फटेहाल ज़िन्दगी की तरह
चल इस नक्कारख़ाने में अपनी कमज़ोर ही सही
पर घण्टी बजाते हुए चल
चल कमज़ोर पहियों पर
संघर्षों का भारी बोझ उठाते हुए
चढ़ व्यवस्था की इस दुर्गम घाटी पर
अपना पूरा ज़ोर लगाकर
जिसे अजेय बता दिया गया है
धीरे-धीरे ही सही पर चलना मत छोड़
क्योंकि तुझपर मैं ही नहीं
चलता है मेरा पूरा घर और दुनिया
और इस रास्ते पर चलते हुए
हमें पहुँचना है कहीं मुकाम पर ।
 
	
	

