रितिका तुम्हें नम आंखों से ये नज्म समर्पित है... / हरकीरत हकीर
वह कपड़ों पर से अंगारों की राख झाड़ती
तो आग की कई सुइयां गिर पड़तीं
जुबां दर्द का शोर मचाती
तो सन्नाटे के कई टुकड़े
कोरे कागज पर स्याह रंग फैला देते
और फिर इक दिन यही स्याह रंग
लील जाता है उसे
आग की शक्ल में...
आह...
यूंही बिक जाती है पर
उसके दुःख का बंटवारा नहीं होता
दूर कहीं पहाड़ी के नीचे हरियाली थी
मगर उसके लिए वहां तक पहुंच पाना
बहुत कठिन...
इक दिन न जाने कहां से
इक आवारा मौज बहा ले गई थी
उसके बदन की खुशबू
जब हवाओं ने
विरोधी रुख अख्तियार किया
तो बादल बागी हो गया
और फिर फैलती गयीं बिस्तर पे
सिलवटें...
दीवारों की खामोशी से
उस पर लगीं तसवीरें तिड़कने लगीं...
खिलौने टूटते तो कितने ही हर्फ मर जाते
ए.सी. की सर्द हवा तल्खी में तब्दील हो
हलक में मुर्दा सांसें लेने लगती
एक्वेरियम की मछलियां कांटो की झाड़ से
आंखें फोड़ने लगतीं...
घड़ी की जर्द आंखें
बर्तनों की सिसकन
गुलदानों की उदासी में अब चिराग टूटने लगे थे...
वह जानती थी पेशेवालियों की हंसी
कार में फैली
महंगे परफ्यूम की खुशबू
लुढकी बोतलों
जेबों में खिलखिलाते
टूथपिकों का राज...
वह फिर खामोश थी...
अब रात हौले-हौले जलने लगी थी
चांद की तन्हाई...
तकिये पर
हजारों कहानियां लिख डालती
वह एल्बम से अपने बचपन की यादें निकालती
सहेलियां बांहों का गोल घेरा बनाये हैं
होंठ धीरे-धीरे बुदबुदाने लगते हैं
इतना-इतना पानी
घर-घर रानी...
इतना-इतना पानी
घर-घर रानी...!