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रिफ़्लेक्स / कैलाश वाजपेयी

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झन्नाकर उठ बैठेगा सोया दुःख और
गगन पके घाव-सा
फूटकर बहेगा
दरारें पड़ जाएँगी कई
समुद्र में

कोई भी
कहीं भी
कुछ भी न रहेगा-
तुम अगर पराङ्मुख हो गईं!
सारी व्यवस्था-यह कि
कई कई साँसें साथ नहीं आतीं
झपती नहीं कभी
अलग-अलग, पलकें
रक्त सिर्फ़
धमनियों में ही है बहता
यह सारी कविता
सिर्फ इसलिए है कि तुम गुनगुनाती हो !
तुम यदि चुप हो जाओ
पागल हो जाए पूरी शताब्दी
अनींद रोग से
तुम यदि मुँह फेर लो
सूर्य कभी उगे नहीं
मृत्यु होने लगे
भोग से !

यह तुम्हारी
किलकारी है
कि ओस ढलती है
अँगड़ाई है
नदी चलती है !
स्याह पड़ जाएँगी सब वनस्पतियाँ
नामहीन
अर्थहीन
जन्महीन
धरती में बंद बंद
पथरा जाएँगी
सब कृतियां!
हवा : इस्पात
धूप : तरल कार्बन
समय : पक्षाघात से
चीखे चिल्लाएगा
तुम अगर उदासीन हो गईं!