रिफ्यूजी कैंप / विमलेश त्रिपाठी
(ज्ञान प्रकाश विवेक की एक कहानी पढ़कर)
अपने मुल्क से बेदखल वे चले आये हैं यहाँ रहने
एक अन्तहीन युद्ध से थके हुए उनके चेहरों पर
बाकी है अभी भी
जिन्दा रहने की थकी हुई एक जिद
वतनी लोगों की नजर में बेवतनी
वे छोड़ आये हैं
दरवाजों पर खुदे अपने पुरखों के नाम
आलमारी में रखे ढेरों कागजात
हर समय हवा में तैरते अपने छोटे-बड़े नाम
बिस्तर पर अस्त व्यस्त खिलौनों की आँखों के दहशत
और पता नहीं कितनी ही ऐसी चीजें
जिन्हें स्मृतियों में सहेजे रखना
उनके लिए असम्भव है
पृथ्वी पर एक और पृथ्वी बनाकर
वे सोच रहे हैं लगातार
कि इस पृथ्वी पर कहाँ है
उनके लिए एक जायज जगह
जहाँ रख सकें वे पुराने खत सगे-सम्बन्धियों के
छन्दों में भीगे राग सुखी दिनों के
गुदगुदी शरारतें स्कूल से लौटते हुए बच्चों की
शिकायतें काम के बोझ से थक गयी
प्रिय पत्नियों की
एक आदमी के ढेरों बयान जंग के समय के
और किताबों की फेहरिस्त से चुनकर रखी हुईं
कविताएँ शान्ति के समय की
उनकी नसों में रेंग रही हैं
अपनों की असहाय चीखें
और उनके द्वारा गढ़े गये
एक नष्ट संसार की पागल खामोशी
जिन्हें टोहती आँखों में लेकर वे बेचैन घूमते हैं
उनकी मासूम पीठों पर लदी हैं
जंगी बारूदों की गठरियाँ
और हृदय में सो रही अनेक ज्वालामुखियाँ हैं
वे चुप आँखों से देख रहे हैं
दूर पहाड़ के पार असहाय और धुँधलाये सूरज को
जैसे अपने क्षितिजों में उगने की तरह
और रात में टिमटिमाती बत्तियों को
अपने छोटे आसमान में सनसनाते
किसी दहशत की खबर की तरह
उनके सपने में दिख रही हैं
सर्द लोहे की भयानक कानूनी आकृतियाँ
अपने पंजे में दबोचने को आगे बढ़ती हुईं
पर बार-बार कत्ल होने के बाद भी वे जिन्दा हैं
एक अदद जगह
और रोटी के कुछ टुकड़ों के अधैर्य इन्तजार में
वे चुप हैं कि उनके बोलने पर पाबन्दी है
उनके रूखे दिलों में
फैलता जा रहा है एक रेगिस्तान
सिर उनके सामूहिक झुकते जा रहे हैं
पाताल की ओर
मनुष्यता के पार की यात्रा कर रहे वे
सबकुछ होकर भी निकल जाना चाहते हैं कैंपों से
चले जाना चाहते हैं किसी अनन्त यात्रा पर
पहुँच जाना चाहते हैं एक ऐसे पड़ाव तक
जहाँ रोप सकें अपनी पोटली में जिन्दा रह गये
एक आखिरी अधसूखे पौधे को
चलते वक्त उखाड़ लाये थे जिसे अपने आँगन से
और सबकुछ होकर भी वे बना लेना चाहते हैं अन्ततः
उम्मीद की रेत पर
छूट गए अपनी-अपनी दुनिया के साबुत नक्शे
फिलहाल उनके लिए
यह दुनिया की सबसे बड़ी चिन्ता है