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रिवायतों की वो धुन्धली लकीर बाकी है / प्रेम भारद्वाज

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रिवायतों की वह धुंधली लकीर बाकी है
जुदा सा रूह से जैसे शरीर बाकी है

वह साँप राह से कब का गुज़र गया होगा
अभी तो लग रहा पिटती लकीर बाकी है

कभी का जा चुका होगा प्रभु तो मंदिर से
अभी तो द्वार पर बैठा फक़ीर बाकी है

बड़ों की बातें हैं सारी सियासती बातें
सुनेंगे बच्चे क्यों उनमें ज़मीर बाकी है

शहों ने रोक दी है चाल कब की राजा की
करोगे अब भी क्या घोड़ा बज़ीर बाकी है

वहीं पे जाएगा भँवरा भी गुनगुनाते हुए
जहाँ भी फूल में थोड़ा मखीर बाकी है

कि ख़ैर माँग तू अपनी छोड़ औरों की
अगर बाज़ार में कोई कबीर बाकी है

कमान पीठ हुई है भले बुज़ुर्हों की
ये दिल भरा ही नहीं प्रेम तीर बाकी है